Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 620 of 1906

 

ट्रेक-

९९

१८७
कुछ होती है और बनता कुछ है। अंततः आकुलतासे थक जाता है। विचार करके
अंतरमें जाता है। अंतरमें ही शान्ति है, कहीं और नहीं है। भले आनन्द उसे अनुभवमें
नहीं आ रहा है, लेकिन वह नक्की करता है कि आनन्द यहीं है, कहीं और जगह
नहीं है।

मुमुक्षुः- ऐसा विश्वास...?

समाधानः- ऐसा उसका विश्वास पहले आना चाहिये।

मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते हैं, तू परमात्मा है, परमात्मा है, ऐसा विश्वास ला।

समाधानः- जितने परमात्माके गुण हैं, परमात्मामें (हैं), ऐसे ही तुझमें है। अनन्त गुणोंसे भरा, अनन्त गुणोंसे गूँथा हुआ तू परमात्मा है। कोई दिव्य देवस्वरूप, तू स्वयं दिव्यस्वरूप है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ उत्पन्न करनेके लिये भी इसी तरह, इसी सिद्धान्तसे...?

समाधानः- तू स्वयं ही है। सर्वसर्व तू ही है। बस, उसकी श्रद्धा कर, उसका विश्वास ला। उसका ज्ञान कर, उसका विचार कर। उस ओर बारंबार झुक, परका आश्चर्य छोड दे, तेरा आश्चर्य ला। बस, वही है। बारंबार वही करनेका है।

.. आगे बढनेके लिये शास्त्र स्वाध्याय (करे)। शास्त्रमें क्या मार्ग आता है (यह जानना)। गुरुदेवने बहुत प्रवचन किये हैं। उसमें अत्यंत स्पष्ट करके मार्ग बताया है। इसलिये उसका विचार करना, उसका वांचन करना, स्वाध्याय करना। अंतरमें उसकी लगनी लगानी, जिज्ञासा करनी, आत्मा कैसे समझमें आये उसके लिये (प्रयत्न करना)। आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है, यह शाश्वत तत्त्व अनादिअनन्त है। उसका कभी नाश नहीं होता। स्वयंसिद्ध आत्मा है। उसे पहचाननेके लिये प्रयत्न करना। यह शरीर जड कुछ जानता नहीं। अन्दर विभाव होते हैं, वह भी आकुलता है। अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माको जानना। भिन्न जाननेके लिये प्रयत्न करना। उसके लिये आत्माका स्वरूप क्या, द्रव्य-गुण-पर्यायका क्या स्वरूप है, पुदगलका क्या स्वरूप है, उसका विचार करके सूक्ष्म दृष्टिसे उसे पढना।

वस्तु असल स्वरूपमें कैसे कही जाती है, उसकी पर्यायसे क्या कहते हैं, उसकी प्रत्येक अपेक्षाएँ समझकर यथार्थ समझना। उसकी लगनी लगानी। वस्तु द्रव्य स्वभावसे तू निर्मल है। उसमें अशुद्धताने प्रवेश नहीं किया है। तो फिर यह विभाव कैसा? यह दुःख कैसा? आकुलता किसकी है? इसलिये आत्मामें विभाव परिणति हो रही है, अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे और स्वयं भ्रान्ति करके-यह शरीर सो मैं, मैं सो शरीर, यह विभाव, राग-द्वेष आदिसे भिन्न आत्माको जानता नहीं है और प्रत्येक शुभाशुभ विकल्पके अन्दर एकत्व हो रहा है। उससे भी इस आत्माका स्वरूप भिन्न है। परन्तु