Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 621 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

१८८ वह पर्यायमें है सही। सर्वथा एकान्त शुद्ध हो तो-तो पुरुषार्थ करना नहीं रहता है। पर्याय अपेक्षासे उसमें अशुद्धता है और द्रव्यदृष्टिसे उसमें शुद्धता है।

जैसे स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। मूल स्फटिक स्वभावसे निर्मल है। उसमें लाल- पीले फूलके संयोगसे वह लाल दिखा, पीला दिखे परन्तु निमित्त (कारण है)। परन्तु वह परिणमन स्वयंका हो रहा है, वह परिणमन स्वयंका है। लेकिन स्वभावसे निर्मल है। वह दोनों अपेक्षाएँ समझकर मूल असल स्वरूपको समझना। कारण, जीवने अनादि कालसे विभावमें शुभभाव बहुत किये, पुण्यबन्ध हुआ, देवलोकमें गया, परन्तु निज स्वरूप पहचाना नहीं। देवलोकमें भी गया। ऐसे सख्त शुभभाव किये कि जिससे (देवलोक मिला), परन्तु आत्माको पहचाना नहीं।

अनन्त कालमें स्वयं द्रव्यलिंगी मुनि बनकर नव ग्रैवेयक उपजायो-ग्रैवेयकमें गया। बाहरसे ऐसी सख्त क्रियाएँ पाली, जो क्रियाएँ शास्त्रमें आती उस अनुसार (पालन किया)। अभी तो वैसा दिखायी नहीं देता। शास्त्रमें आता है उस अनुसार पालन किया। परन्तु शुभभावसे पुण्यबन्ध हुआ। परन्तु इन सबसे भिन्न मैं आत्मा, उसे पहचाना नहीं। इसलिये आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करना। लेकिन बीचमें उसे (यह सब) आता है। जो शुभभाव पुण्यबन्धका कारण है, इसलिये वह बीचमें नहीं आते हैं, ऐसा नहीं है। यदि शुभभाव छूटे तो अशुभमें जाय, तो पापबन्धका कारण (होता है)। परन्तु अशुभभावसे बचनेके लिये बीचमें शुभभाव देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये और आत्माको पहचाननेका... मूल वस्तु-आत्माकी रुचि होनी चाहिये। अनन्त कालसे शुभभावमें अटक गया है। लेकिन उससे भिन्न आत्मा है, उसे पहचानता नहीं है। लेकिन बीचमें शुभभाव आये बिना नहीं रहते।

शुद्धात्मा कैसे पहचानूँ? उसका प्रयत्न (करना चाहिये)। यह दोनों अपेक्षाएँ समझनी। द्रव्य किस अपेक्षासे है और पर्यायमें क्या होता है? मूल असल स्वरूपसे शुद्धता है और पर्यायमें अशुद्धता है। पुनः एकान्त शुद्ध होकर शुष्कता न आ जाय, उसका ध्यान रखना। अपना हृदय भीगा हुआ रहना चाहिये कि अनन्त कालसे रखडा। इस जीवको अन्दर दुःख किसका है? अंतरमें विभावसे विरक्ति-वैराग्य आना चाहिये। ज्ञान, उसे यथार्थ समझनेका रास्ता और समझनेके लिये यथार्थ प्रयत्न, उसका ज्ञान यथार्थ करे, उसे वैराग्य- विरक्ति आनी चाहिये। उसकी महिमा आनी चाहिये। चैतन्य स्वरूप कोई अदभुत है। उसकी महिमा, उसकी महिमा आये और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आनी चाहिये। उसकी पहचान करवानेवाले देव हैं, गुरु हैं, शास्त्र है। सब उसकी पहचान करवानेवाले हैं।

उसमें साक्षात चैतन्यमूति्ि गुरुदेवने जो मार्ग बताया, जो साधनाका मार्ग बताया उस पर उसे अपूर्व महिमा आये बिना नहीं रहती। अपने स्वभावकी महिमा, देव-गुरु-शास्त्रकी