मुमुक्षुः- माताजी! हमें तो ऐसा लगता है कि ज्ञान, श्रद्धा और चारित्र उन तीनोंका स्वरूप बराबर पकडमें नहीं आता, उस हिसाबसे आत्मा ज्ञायककी दृष्टि करनेमें विक्षेप आता है। ज्ञान ऐसा कहता है कि, द्रव्य, गुण एवं पर्याय तीनों तू है। दृष्टि ऐसा कहती है, ज्ञायकमात्र तू है।
समाधानः- दृष्टि उसे दूर करती है, परन्तु वह अपेक्षासे है। दृष्टि दूर करे और ज्ञान रहे। एक वस्तुको अनेक पहलूसे देखी जाती है। वस्तु चैतन्य है (उसमें) अनेकान्त धर्म हैं, अनेकान्तमय मूर्ति अनेक स्वरूप (है)। अनन्त धमासे शोभायमान ऐसी चैतन्यमूर्ति है। उसे एक अपेक्षासे एक (धर्म) द्वारा नहीं देखी जाती, उसे चारों ओरसे देखनेमें आता है।
वस्तु, वस्तुके गुण, वस्तुकी पर्याय, चारों ओरसे वस्तुको देखी जाती है। मूल आश्रय किसका लेना? दृष्टि आश्रय मूल वस्तुका लेती है। उसमें गुणभेद, पर्यायभेद किये बिना एक अस्तित्वको ग्रहण करती है। एक मनुष्य हो तो एक मनुष्यने आश्रय लिया। भगवान है, भगवानका आश्रय लिया कि भगवान मेरे हृदयमें हैं, मैं भगवानको देखता हूँ। आश्रय लिया, फिर भगवानका विचार नहीं करता है। यह भगवान ही है। नक्की किया कि यह भगवान हैं। सर्व गुण संपन्न भगवान। उस वक्त उसे विकल्प नहीं आता कि भगवानका आश्रय लूँ। उसमें कोई गुणभेद, पर्यायभेद (दिखायी नहीं देते)। आश्रय लेनेवाले को उस पर दृष्टि या विकल्प नहीं होता। परन्तु भगवानमें गुण क्या है? उन गुणोंका विचारक करनेमें ज्ञान आता है, चारों पहलूसे। भगवानमें कौन-से गुण भरे हैं? भगवानकी अवस्था क्या? उनका स्वरूप क्या है? सब ज्ञान (करता है)।
आश्रय लेनेमें, आश्रयमें एक ही आता है। दृष्टिमें एक आश्रय लिया, उसमें एक वस्तु आ जाती है। उसके भेद हैं, वह मूल वस्तुभेद नहीं है। उसका लक्षणभेद और अंश-अंशीका भेद है। उसके आश्रयमें तो एक ही आता है। वस्तु अनेकान्त स्वरूपसे भरी है। उसके ज्ञानमें सब आना चाहिये और आश्रयमें एक आता है। वही वस्तुका स्वरूप है। आश्रयमें भिन्न-भिन्न (आश्रय नहीं होता)। द्रव्यका आश्रय, गुणका आश्रय, ऐसे आश्रय भिन्न-भिन्न नहीं होते। आश्रय एक ही होता है। लेकिन उस आश्रयमें गुणोंसे