Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

१९२ भरितवस्थ वस्तु अन्दर आ जाती है। लेकिन उसकी भेद पर दृष्टि नहीं है, उसे गौण हो जाता है। इसलिये आश्रय लिया।

श्रद्धाका दोष या चारित्रका दोष, वह तो जबतक भेदज्ञान नहीं हुआ है, भेदज्ञान होकर ज्ञायककी धारा प्रगट हुयी, तो श्रद्धाका दोष, चारित्रका दोष आदि स्पष्टरूपसे भिन्न पडता है। पहले तो उसे एकत्वबुद्धि है और श्रद्धा, आचरण आदि सब मिश्र है। इसलिये उसे अपनी परिणतिमें ही मिश्र है, इसलिये उसे भिन्न करना मुश्किल पडता है। परिणतिमें मिश्र है, इसलिये यह श्रद्धाका या यह चारित्रका (दोष ऐसे भिन्न नहीं कर सकता है)। परिणतिमें ही मिश्र हो रहा है। अन्दर भेदज्ञान हुआ नहीं है। श्रद्धा जिसकी भिन्न हो गयी, ज्ञायककी परिणति (हुयी) उसे (यह) श्रद्धा (है), यह चारित्र- यह स्थिरता है (ऐसा भिन्न कर सकता है)। ज्ञायककी श्रद्धामें फर्क पडे तो वह श्रद्धाका दोष होता है। मैं ज्ञायक ही हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। गुणभेद है वह लक्षणभेदसे है। उसमें यदि भूल पडे तो उसकी श्रद्धामें, आश्रयमें भूल पडे। तो वह श्रद्धाका दोष है।

इसलिये जब वह भिन्न हुआ, तो उसे जो अनन्तानुबन्धीका रस था वह टूट जाता है। ज्ञायक भिन्न पडे। अभी अभिन्न है, इसलिये भिन्न नहीं पडा है। इसलिये उसे सब मिश्ररूपसे चल रहा है। उसे सब रस मन्द पडे हैं। यथार्थ देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण किये, तत्त्वका विचार करता है, तत्त्वको ग्रहण करता है, ऐसा सब करता है। इसलिये वह तत्त्वकी ओर झुका है। इसलिये उसे सब (रस) मन्द पड गये हैं। अनन्तानुबन्धी, दर्शनमोह आदि। लेकिन वह उससे भिन्न नहीं पडा है, इसलिये उसे सब मिश्ररूपसे ही चल रहा है। इसलिये मिश्र हो रहा है। भिन्न पडे उसे, यह अस्तित्वका और यह श्रद्धाका...

लेकिन उसमें स्थूलरूपसे वह ऐसा ग्रहण कर सकता है कि जो तत्त्व सम्बन्धित बात हो, उसमें जो भूल पडे, तीव्रता आ जाये, वह सब दर्शनमोहमें जाता है। और दूसरा अस्थिरतामें जाता है।

मुमुक्षुः- स्थूलरूपसे भेद कर सकता है।

समाधानः- तत्त्व सम्बन्धि जो हो, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र सम्बन्धित, तत्त्त्त्व सम्बन्धित, उस तत्त्वमें भूल पडे तो वह श्रद्धाके दोषमें जाता है।

मुमुक्षुः- शुभरागसे धर्म हो, इत्यादि।

समाधानः- हाँ, वह सब श्रद्धाके दोषमें जाता है। शुभरागसे धर्म होता है, शुभ हो तो अच्छा है, आदि। शुभ आता है, लेकिन उससे लाभ (नहीं मानता)। वह अपना निज स्वरूप नहीं है। तत्त्वमें भूल पडे तो वह श्रद्धाके दोषमें जाती है। बाकी जो आचरणमें हो, वह सब कषायके भाव हैं। भूमिकामें अमुक प्रकारके कषाय मन्द (होते