हैं), वह सब आत्मार्थीको तो होना चाहिये। आत्माका जिसे प्रयोजन है, उसे भूमिका अनुसार कषायोंका रस अन्दरसे कम हो जाता है। उस सम्बन्धित तो उसे होता है। श्रद्धा और चारित्रका भेद पडे, इसलिये उसे उसमें उतना फर्क नहीं पडता कि दूसरे कषाय बहुत हो जाय। यह तो तत्त्वका है। बाकी दूसरे सांसारिक व्यवहारिक कषाय बहुत बढ जाय, ऐसा नहीं होता। आत्मार्थीको आत्माका प्रयोजन हो तो उसे भूमिका भी अमुक प्रकारकी होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- मुख्यरूपसे तत्त्वका दोष श्रद्धाके दोषमें लेना चाहिये। और लौकिकमें भी ऐसे तीव्र कषाय नहीं होते कि जो सामान्य लोकको भी नहीं होते।
समाधानः- नहीं होते। उसकी भूमिका, मुमुक्षुकी भूमिका अनुसार होना चाहिये।
मुमुक्षुः- और खास तो जब भिन्न पडे तब ही यथार्थरूपसे...
समाधानः- यथार्थ भेद तब ही पडता है। परिणति भिन्न पडे और अस्थिरता भिन्न रह जाय। उसे भेदज्ञान हो। तब ही उसे श्रद्धा और चारित्रका दोष वास्तविकरूपसे उसकी परिणतिमें होते हैं। तबतक उसे रस मन्द हुए होते हैं। सब पहलूसे देखा जाता है। नक्की करके आश्रय एकका लिया जाता है। प्रत्येक वस्तु व्यवहारमें भी नक्की करे, कोई व्यक्तिका वह आश्रय लेता है, माँ-बापका या दूसरेका, तो व्यक्तिगत तौर पर आश्रय ले उसमें उसे भेद नहीं है, उसमें विचार नहीं है। उसे विकल्प नहीं है। उसमें क्या गुण है, यह सब विचारमें आता है। आश्रय लेनेमें आश्रय एक वस्तुका (लेता है)। चैतन्यका आश्रय लेनेमें एक वस्तु अखण्ड ऐसे आता है। फिर उसमें गुणभेद पर या पर्यायभेद पर कहीं दृष्टि (नहीं होती)। विभाव तो मेरा स्वभाव ही नहीं है। ज्ञायक एक वस्तु है। वस्तुमें क्या है? ऐसा कुछ नहीं। अस्तित्वका आश्रय-यह वस्तु मैं हूँ, बस। ज्ञायक वस्तु मैं हूँ। उस वस्तुका आश्रय लिया।
मुमुक्षुः- आश्रयमें हूँ-पनाका अनुभव करना है, हूँ-पने अनुभव करना। ज्ञायक वही मैं, ऐसे हूँ-पने अनुभव करना है, वहाँ ज्ञान ऐसा (कहता है), यह गुणभेद, यह पर्यायभेद तेरेमें हैं, तू ही है, कुछ अन्य नहीं है। अर्थात एकमें हूँ-पना करना, दूसरेमेंसे छोडना। वहाँ श्रद्धा और ज्ञानका विषय, थोडा फर्क करता है। उलझन वहाँ होती है कि श्रद्धामें यह ज्ञायक ही हूँ, ऐसा मैं अनुभव करता हूँ और पर्याय भी... अन्य कुछ भी मैं नहीं, यानी पर्यायमात्र भी मैं नहीं हूँ। नहीं हूँ, इसलिये ज्ञानमें जैसा है वैसा, परसे भिन्नता और अतदभावरूप भिन्नता, वस्तु स्वरूपको जैसा है वैसा ख्यालमें रखकर, सर्वथा इतना दृष्टिका जोर नहीं देता है कि यह ज्ञायक ही मैं हूँ, और अन्य कुछ भी मैं नहीं हूँ।
समाधानः- ... फिर उसमें उसे विकल्प नहीं है कि यह पर्याय मैं नहीं हूँ