Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 627 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

१९४ या यह गुणभेद मैं नहीं हूँ। ऐसा विकल्प उसे नहीं है। उसने तो एक अस्तित्वको ग्रहण किया है। दृष्टिके अन्दर ज्ञान साथमें ही जुडा है। कितना भेद, विभाव और स्वभाव भेद है, पर्यायका कितना भेद है, गुणका कितना भेद है, इन सबके ख्यालपूर्वक दृष्टिका जोर है। दृष्टिका जोर ऐसा नहीं है कि पर्याय एक दूसरी वस्तु है। दृष्टिका जोर... जो श्रद्धा की, श्रद्धामें ऐसा जोर है कि यह पर्याय बाहर लटक रही है। ऐसा नहीं है।

उसे दृष्टिके जोरके साथ पर्यायका वेदन होता है। वेदन आदि सबका ज्ञानमें ख्याल है, परन्तु दृष्टिका जोर ऐसा नहीं था कि ज्ञानसे विरूद्ध है। उसके साथ, यह कितना भिन्न है और वह कितना भिन्न है, सबके ख्यालपूर्वक दृष्टिका आश्रय है। दृष्टिका आश्रय ऐसे नहीं है कि ज्ञान कुछ दूसरा काम करता है और दृष्टि कोई दूसरा करती है, ऐसा नहीं है।

(दृष्टि) ऐसा कहती है कि मेरेमें तू कुछ है ही नही और ज्ञान कहता है, मेरेमें है। ऐसा नहीं है। किस प्रकारसे है और किस प्रकारसे नहीं है, वह दृष्टि और ज्ञान दोनों मैत्रिपूर्वक काम करते हैं।

मुमुक्षुः- दोनों मैत्रिपूर्वक काम करते हैं।

समाधानः- हाँ, मैत्रिपूर्वक करते हैं।

मुमुक्षुः- अर्थात ज्ञान जिस प्रकारसे वस्तुका स्वरूप बताता है, उसे रखकर दृष्टि..

समाधानः- उसे रखकर दृष्टिका जोर उसी प्रकारसे होता है। दृष्टिमें ऐसा नहीं आता है कि यह पर्यायका वेदन है, यह पर्याय आ गयी, पर्याय आ गयी। ऐसा नहीं है दृष्टिमें। दृष्टिने तो आश्रय ही ग्रहण किया है। दृष्टिकमें विकल्प नहीं है। दृष्टिमें किसी भी प्रकारका भेद नहीं है। दृष्टिने अस्तित्व ग्रहण किया है। फिर उसमें बाकी सब आता है, उससे भागती है, ऐसा उसका कार्य नहीं है। उसे ख्याल है कि यह गुणभेद, पर्यायभेदका विषय उसमें गौण हो गया है। उसे देखने वह रुकती नहीं। उसे तो श्रद्धा करनी वही उसका विषय है। दृष्टिका विषय श्रद्धाका जोर (है)। मैं कौन हूँ, उसकी श्रद्धाका जोर है। ज्ञान है जो सब स्वरूप जानता है, उससे कोई अलग ही उसका आश्रय है ऐसा नहीं है। दोनों मैत्रिपूर्वक कार्य करते हैं। दृष्टिका सब ज्ञान तोड दे और ज्ञानका सब दृष्टि तोड दे (ऐसा नहीं होता)। दोनों मैत्रिपूर्वक कार्य करते हैं। दृष्टिमें कोई विकल्प नहीं है। एक आश्रय ग्रहण करना और श्रद्धाका बल है।

.. चैतन्यमेंसे उत्पन्न हुयी भावना निष्फल नहीं जाती है, ऐसा भगवानने कहा है। और वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है। भगवानने कहा है। जो वस्तु है, उसे अन्दरसे जो परिणति-भावना उत्पन्न हो, उसका कार्य आये बिना रहता ही नहीं। यदि अंतरमें वह