कार्य न आये तो वस्तु टिक नहीं सकती। अंतरमेंसे जो भावना उत्पन्न हुयी हो, उसकी परिणति जो हो, उसे हुए बिना रहती ही नहीं। अंतरकी भावना होनी चाहिये। अंतरकी भावना। चैतन्यमेंसे उत्पन्न हुयी भावना हो।
मुमुक्षुः- अनन्त तीर्थंकरोंने कही हुयी बात है। एक तीर्थंकर परसे सब तीर्थंकरोंने ऐसा कहा है?
समाधानः- जो मार्ग एक तीर्थंकर भगवान कहे, वह सब भगवान कहते हैं। मार्ग तो एक ही है। तीनों कालमें एक ही मार्ग है। मुक्तिका मार्ग एक ही है। एक भगवान या सब भगवान, एक ही बात कहते हैं। उसमें अलग नहीं होता। मुक्तिका मार्ग, स्वानुभूतिका मुक्तिका मार्ग एक ही होता है। उसमें दूसरा नहीं होता। यह तो भावनाकी बात है न। यदि अंतरसे उत्पन्न हुयी भावना हो (और परिणति न हो) तो चैतन्य टिक ही नहीं सकता। यदि उसकी भावना (अनुसार) परिणति न हो, जैसी उसे अंतरसे भावना हुयी हो, उस रूप यदि परिणति परिणमे नहीं तो वह चैतन्य टिक ही नहीं सकता।
अंतरकी भावना होनी चाहिये। अंतरकी उसकी श्रद्धाकी परिणति, ज्ञानकी परिणति, चारित्रकी परिणति, उसे यदि अंतरसे भावना हो तो उस रूप उसका परिणमन हुए बिना रहे नहीं। उसका मार्ग वह अन्दरसे द्रव्य ही ढूँढ लेता है, द्रव्य ही उसका कार्य कर लेता है। उस प्रकारसे द्रव्य कार्य न करे तो द्रव्यका नाश हो जाय। एकका नाश हो तो सबका नाश हो जाय। वस्तुका स्वरूप ऐसा होता ही नहीं। ऐसी उसकी श्रद्धाकी परिणति, ज्ञानकी, चारित्रकी परिणति अंतरंगसे परिणमन हुए बिना रहे ही नहीं। अंतरमेंसे द्रव्य ही स्वयं मार्ग करके स्वयं स्वयंका आश्रय ग्रहण करके स्वयं ही पहुँच जाता है। (चैतन्यकी) ओर जो परिणति जाय, उसकी शुद्धरूप परिणति होती है। उसकी भावना (अंतरकी हो तो)। बाहरकी बात अलग है, यह तो अंतरकी बात है। अंतरंग सच्ची भावनाकी बात है।
प्रत्येक द्रव्य निज स्वरूपरूप परिणमता है और उसकी परिणतिकी गति, जो अपनी भावना (हो) अर्थात जिस ओर उसका झुकाव हो, उस रूप द्रव्य उसकी परिणति प्रगट किये बिना रहता ही नहीं। वस्तुका स्वभाव ऐसा है। नहीं तो वह द्रव्य ही नहीं टिके, द्रव्य ही न रहे।
मुमुक्षुः- कुदरत बन्धी हुयी है।
समाधानः- कुदरत उसके साथ बन्धी हुयी है। कुदरत यानी वस्तुका स्वरूप। किसीने भावनाका प्रश्न हो, उसमेंसे आया है। सब भावना-भावना करते हैं। अन्दर सच्ची भावना हो तो प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं। अंतरमेंसे स्वयं द्रव्य ही मार्ग कर लेता है। भगवानने