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मुमुक्षुः- सत्पुरुषकी दिव्य वाणी सुननेके बजाय, उसमें मतभेद खडे करके, रोकटोक करके स्वयंको जो लाभ प्राप्त होना चाहिये, उसकी जगह दूसरा सब होने लगा।
समाधानः- .. वह तो स्थूल था, गुरुदेवने तो सूक्ष्म बताया। उसमें (मतभेद) हो गये।
मुमुक्षुः- वास्तवमें तो अंतरमें स्वयंका करना था, उसे छोड दिया और बाहरमें सब लग गये। यह करो और वह करो।
समाधानः- हाँ, बाहरमें आ गये। गुरुदेव स्वयंका करनेको कहते थे।
मुमुक्षुः- संक्षेपमें आपने बहुत कह दिया।
समाधानः- गुरुदेव कहते ही थे, अंतरका ग्रहण कर। सहज प्रभावनाका भाव हो, अलग बात है। फिर इस प्रकारकी तकरार तो नहीं होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- यहाँ किसका प्रतिबन्ध है? यहाँ आनेके लिये कौन रोकता है? अभिप्राय भिन्न पड गये हो, गुरुदेवने जो कहा है, वह करना नहीं है और अपने-अपने अभिप्रायसे भिन्न-भिन्न (बात करके) ऐसा करो, ऐसा करो। ऐसे मतभेद हो जाते हैं। कोई क्या करे?
समाधानः- ... यह गुरुदेवकी भूमि है। जिसे-जिसे भावना होती है, वह सब आते हैं। मतभेद अच्छा नहीं लगता। शान्तिसे... लेकिन क्या हो सकता है? कोई उपाय ही नहीं है।
मुमुक्षुः- ... बहुत महेनत करके नाममें थोडा ठीक किया तो फिर वापस...
समाधानः- गुरुदेवश्रीका अभिप्राय अन्दर ऊतारे तो होता है।
मुमुक्षुः- आप सब आईये, ... कुछ करे। ... सिद्धान्तिक विषय है।
समाधानः- गुरुदेव गये ही नहीं। ... कितना प्रकाश किया, उसके साथ दूसरेका मेल कहाँ-से हो? गुरुदेवने मार्ग प्रकाशित किया, उसके साथ दूसरेका मेल कहाँसे हो? वह पूरा संप्रदाय जुदा। उनका मार्ग तो उन्होंने भिन्न ही प्रकाशित किया।
मुमुक्षुः- आज्ञा जैसा विषय समझमें नहीं आता है, दूसरी कौन-सी बात समझमें आती होगी? ... किसी भी बातका विचार करनेका प्रश्न कहाँ है? मर्यादा बिनाके विचार कहाँ तक ले जाते हैं।
समाधानः- ... मार्ग ग्रहण किया, ऐसा मार्ग मिला, गुरुदेवने यह समझाया। धर्मकी प्रभावना करनेके लिये अपना अभिप्राय रखनेके लिये मर्यादा बाहर पहुँच जाना। मर्यादा छोडकर.... जितनी अपनी भावना हो... मर्यादा बाहर चले जाना? कहाँ जाना है यह मालूम नहीं पडता। विरोधमें कहाँ तक पहुँच जाना, वह भी मालूम नहीं पडता। स्वयं अपना करना। बाहर सब अपने अभिप्राय अनुसार हो जाना चाहिये, उस प्रकारके विरोधमें