समाधानः- पर्याय वस्तुमेंसे चली नहीं जाती। विभाव छूट जाता है। क्योंकि विभाव अपना स्वभाव नहीं है। परन्तु शुद्ध पर्याय तो स्वयंमें रहती है।
मुमुक्षुः- अन्दर जो उलझन थी, वह सब निकल गयी। बहुत स्पष्टता (हो गयी)।
समाधानः- उसका स्वरूप, चैतन्यका वस्तुका स्वरूप कोई अद्भुत है। आश्चर्यकारी है। उसका मेल करके समझना। तो ही मुक्तिका मार्ग यथार्थपने सधता है। समझनेमें दूसरा पहलू समझे ही नहीं और निकाल दे तो यथार्थ नहीं आती। कहाँ जोर देना है, कहाँ गौण करना है, वस्तुके स्वरूपको निकाल नहीं देना चाहिये। ... है, पराश्रित भाव है, आत्माका स्वभाव नहीं है।
द्रव्यकी दृष्टिसे स्वभाव सधता है। लेकिन उसमें शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं, उसका वेदन स्वयंको होता है। वह शुद्ध पर्याय चैतन्यसे भिन्न नहीं है। सर्वांशसे सर्व प्रकारसे वह भिन्न रहे अथवा दूसरे द्रव्यकी भाँति भिन्न अलग है, ऐसा नहीं है। चैतन्यके आश्रयसे ही वह पर्याय प्रगट होती है और चैतन्यको ही उसका-शुद्ध पर्यायका वेदन होता है। रागकी पर्याय तो विभाव पर्याय है। क्षेत्र तो उसका एक है, वह कहाँ भिन्न है? विभाव अपना स्वभाव नहीं है। वह तो उसका निमित्त जड है। बाकी जो चैतन्यमें पर्याय होती है, वह दूसरे क्षेत्रमें नहीं होती है, रागकी पर्याय। अपेक्षासे कहनेमें आताैहै।
निमित्तसे होती है, जड कर्मके निमित्तसे होती है, इसलिये उसका क्षेत्र भिन्न है, ऐसा कहनेमें आता है। सर्व प्रकारसे वह जडमें नहीं होती है। रागकी पर्यायको वह टाल नहीं सके, यदि जडमें होती हो तो। स्वयंको रागकी पर्यायका वेदन होता है। तो वह जड है क्या? अपना स्वभाव नहीं है, इसलिये उस अपेक्षासे, कर्मके निमित्तसे हुयी इसलिये उसे पुदगलमें डालकर पुदगल कहनेमें आता है। सर्व प्रकारसे वह जडके क्षेत्रमें नहीं होती है। वह तो अपनी परिणतिमें होती है। उसे स्वयं टाल सकता है। उसका स्वभावभेद है। स्वभावभेद है इसलिये उसे अन्य क्षेत्रकी कही जाती है। सर्व प्रकारसे वह अन्य क्षेत्रकी नहीं है। अपनी पर्याय अपनेमें विभाव पर्याय होती है।
समाधानः- ... गुरुदेवने मार्ग कहा है, वह करनेका है। इस पंचमकालमें गुरुेदव पधारे और मुक्तिका मार्ग स्पष्ट किया है। कोई जानता नहीं था। इस पंचमकालमं बाह्य दृष्टि थी। गुरुदेवने अंतर दृष्टि करवायी। मुक्तिका मार्ग, स्वानुभूतिका मार्ग, मुनिकी दशा, केवलज्ञान इत्यादि सब गुरुदेवने प्रगट किया है। आत्माकी जिज्ञासा, अंतरसे लगन लगे, सचमुचमें लगन लगे तो प्रगट हुए बिना नहीं रहता। परन्तु जीवको लगन लगानी, अंतरमें रुचि हो, तत्त्वके विचार करके अंतरमें ज्ञायक कौन है? स्वयंका स्वभाव क्या है? अंतरमेंसे नक्की करे कि मैं जाननेवाला ज्ञायक ही हूँ। यह जड शरीरादि मेरा स्वरूप नहीं है।
शरीर, मन, वचन आदि सब जड पदाथासे मैं भिन्न हूँ। यह विभावस्वभाव, शुभाशुभ