Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

२१८ भाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। उससे भिन्न पडकर, अंतरसे भिन्न पडकर, विकल्पसे भावना भावे अलग बात है, अंतरसे भिन्न होकर भेदज्ञान करे तो मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। भेदज्ञान करके अंतरसे लीन हो, उसकी श्रद्धा, उसका ज्ञान और लीनता करे तो स्वानुभूति प्रगट होती है। उसके लिये उसकी लगनी, जिज्ञासा, बारंबार चैतन्यकी महिमा आवे, चैतन्यकी रुचि लगे, चैतन्यतत्त्वका यथार्थ स्वरूप पहचाने और विभावसे विरक्ति हो तो अंतरमें परिणति झुके, तो होता है। बाहरमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शुभाशुभ भाव दोनों विभाव हैं, फिर भी शुभभावोंमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये बिना नहीं रहती और अंतरमें शुद्धात्माकी रुचि।

सब विभावसे आत्मा भिन्न है, ऐसी शुद्धात्माकी रुचि अन्दर होनी चाहिये। उसकी लगन और जिज्ञासा लगाये तो हुए बिना नहीं रहता। क्षण-क्षणमें उसकी लगन, जिज्ञासा हो तो होता है। पुरुषार्थके बिना नहीं होता। गुरुदेवने पुरुषार्थ करनेको कहा है। चार गतिका अभाव अन्दर स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। जीव बाहरमें अटका है, अंतरमें दृष्टि नहीं की है। अंतर दृष्टि स्वयंको पहचाने तो होती है।

मुमुभुः- आपके आशीर्वाेदसे हमारा .. हो जायगा। समाधानः- स्वयं अन्दर पुरुषार्थ करे तो होता है। जो भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचाने, गुरुदेवको पहचाने वह स्वयंको पहचाने। आशीर्वाद कहाँ लागू पडते हैं? स्वयं तैयारी करे तो आशीर्वाेद लागू पडे। परसे होता नहीं, स्वयं करे तो होता है।

मुमुक्षुः- गृहस्थ दशामें रहकर अपनेको शांति लेनी है तो ले सकते है कि नहीं ले सकते हैं? गृहस्थ दशामें रहते हुए भी आत्मामें शांति मिले, ऐसा कोई उपाय बताईये।

समाधानः- गृहस्थाश्रममें रहकर भी आत्माका स्वरूप पहचाना जाता है। गृहस्थाश्रममें रहकर (हो सकता है)। गृहस्थाश्रम अन्दर आत्मामें घुस नहीं गया है। अन्दर शुद्धात्माकी रुचि लगे, उसकी लगन लगे तो गृहस्थाश्रममें भी होता है। चक्रव्रती, राजा आदि सब गृहस्थाश्रममें रहकर भिन्न रहते थे। अन्दरसे आत्माकी-ज्ञायककी दशा प्रगट करते थे, भेदज्ञानकी धारा प्रगट करते थे। गृहस्थाश्रममें रहकर भी मुक्तिका मार्ग शुरू होता है, स्वानुभूति प्रगट होती है। आगे लीनता बढानेके लिये मुनिदशा आती है। बाकी सम्यग्दर्शन तो गृहस्थाश्रममें भी होता है। अन्दरसे भिन्न रहे तो होता है। अन्दर उतनी स्वयंको जिज्ञासा लगे और भेदज्ञान करे तो गृहस्थाश्रममें भी होता है।

मुमुक्षुः- माताजी! रुचिको कैसे बढाना चाहिये?

समाधानः- पुरुषार्थ करे तो होता है। रुचि भी स्वयंको ही बढानी है। तत्त्वज्ञान स्वयंको करना है, रुचि स्वयंको बढानी है, लगन स्वयंको लगानी है, सब स्वयंको करना है। गुरुदेवकी वाणी प्रबल निमित्त है, परन्तु करना स्वयंको है। पुरुषार्थ स्वयं