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नहीं होता है। भ्रान्तिके कारण अनादि कालसे भव करता रहता है, भवका भ्रमण। आत्माको पहचाने तो भवका अभाव होता है।
यह आत्मा शाश्वत है, उसे पहचाने, उसका भेदज्ञान करे, उस पर दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो वह प्रगट होता है। लेकिन बाह्य दृष्टि है, प्रतीत बाहर करता है, ज्ञानका उपयोग सब बाहर जाता है, लीनता सब बाहरमें करता है। अंतरमें जाता नहीं है, इसलिये आत्मा पहचाना नहीं जाता।
मुमुक्षुः- गुरुदेवके पास, आपके पास सुने तब तो ऐसा लगता है, ओहो..! आत्मा तो अत्यंत करीब है। लेकिन जैसे ही बाहर निकलते हैं, आत्मा कहाँ खो जाता है। हमारेमें क्या क्षति है उसे समझना चाहिये।
समाधानः- आत्मा तो अपने पास ही है। अनादिका अभ्यास है, इसलिये उपयोग बाहर चला जाता है। बाहरमें रस है, उतना आत्माका रस नहीं लगा है। आत्माकी महिमा नहीं लगी है। आत्मा सर्वोत्कृष्ट है, ऐसा लगा नहीं है। बाहरका रस है। मानो बाहरमें सबकुछ रसमय क्यों न हो, ऐसा उसे लगता है। बाहरका सब सुखमय, रसमय लगता है। अंतर आत्मा सुखमय और रसमय लगता नहीं है। उसकी श्रद्धा नहीं होती है, इसलिये बाहर दौड जाता है। श्रद्धा होती है तो ऊपर-ऊपरसे श्रद्धा करता है, अन्दर गहराईमें जाकर श्रद्धा करे तो अंतरमें पुरुषार्थ हुए बिना रहता नहीं।
मुमुक्षुः- वैसे तो आत्माकी उपलब्धि सहज साध्य है ऐसा भी कहनेमें आता है, प्रयत्न साध्य है ऐसा भी कहनेमें आता है। तो दोनोंका मेल कैसे है?
समाधानः- उसका स्वभाव है, इसलिये सहज साध्य है। वह बाहरसे नहीं आता, अंतरमें सहज है। परन्तु अनादिका अभ्यास बाहरका है, इसलिये प्रयत्न अपनी ओर करे तो होता है।
मुमुक्षुः- करना पडे।
समाधानः- प्रयत्न करे तो होता है, ऐसे ही नहीं हो जाता। सहज है। अपने पास है, सहज है। वह, बाहरका कोई साधन मिले (तो होता है), ऐसा नहीं है। स्वयं सहज है, प्रयत्न करे तो होता है। साधन बाहरके होते हैं-देव-गुरु-शास्त्र। अनादिकालसे आत्माको पहचाना नहीं है, इसलिये उसके साधन देव-गुरु-शास्त्र हैं। अनादिसे पहचाना नहीं है, इसलिये पहले उसे एक बार स्व सन्मुख होनेमें, सम्यग्दर्शन होनेमें, देशनालब्धि होनेमें जिनेन्द्र देव, गुरुका प्रत्यक्ष उपदेश मिले तो वह अंतरमें स्वयं स्वयंको पहचानता है, अपनी ओर जाता है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंसे करना है।
मुमुक्षुः- लेकिन ऐसा निमित्त भी मिलना चाहिये न?
समाधानः- हाँ, निमित्त-उपादानका सम्बन्ध ऐसा है। अनादि कालमें एक बार