२२२ ुउसे जिनेन्द्र देव और गुुरु मिले और वह अंतरमें ऐसी रुचिसे सुने तो होता है। रुचिसे श्रवण करे नहीं तो अनन्त कालमें अनेक बार मिले हैं, तो भी अन्दरमें अपूर्वता नहीं लगी है।
मुमुक्षुः- उपयोगको बहिर्मुख रहनेकी अतिशय आदत है।
समाधानः- आदत, अनादिका अभ्यास है, बाहर ही जाता है, बाहर ही दौड जाता है। उसे बारंबार पुरुषार्थ कर-करके, बारंबार अपनी ओर आनका (प्रयत्न करना चाहिये)। जैसा बाहरमें सहज जाता है, वैसा अंतरमें स्वयं सहज करे तो अपनी ओर टिके। बाहरमें कैसा दौड पडता है। उसमें उसे महेनत नहीं करनी पडती। कुछ करना नहीं पडता, सहज ही दौड पडता है। वैसे अपनी ओर सहज होनेके बावजूद जाता नहीं है। बारंबार उसका अभ्यास करे, उसके बिना रुचे नहीं, उसके बिना सुहाय नहीं, बारंबार बाहर जाय तो भी बारंबार मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, यह स्वरूप मेरा नहीं है। यह सब विकल्पका स्वरूप मेरा नहीं है। ऐसे भेदज्ञान करके बारंबार उस ओर यदि आदत डाले। लेकिन वह कब पडती है? उसकी महिमा लगे तो पडती है। शुष्कतासे बोलनेमात्र या रटन करने हेतु करे तो नहीं होता है, उसकी महिमा लगे तो होता है। उसे अंतरमेंसे पहचाने तो होता है।
मुमुक्षुः- अभी तो सब अवसर, ऐसे दुषमकालमें ऐसे गुरुदेव, ऐसी वाणी, आप विद्यमान, ऐसा प्रबल और समर्थ निमित्त मिले हैं, अब काम तो हमारी ही हिन योग्यताके कारण नहीं हो रहा है।
समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। ऐसे गुरुदेव मिले, इतनी वाणी बरसायी, चारों ओरसे समझाया, कुछ बाकी नहीं रहा, उतना समझाया है। आत्माका स्वरूप, तत्त्वका स्वरूप स्पष्ट कर-करके आत्माकी स्वतंत्रता, द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, निमित्त- उपादानका स्वरूप चारों ओरसे सब स्वरूप गुरुदेवने स्पष्ट किया है। लेकिन पुरुषार्थ स्वयंको करना बाकी रहता है। आत्माकी स्वानुभूति, मुनिदशा, केवलज्ञान सब स्पष्ट किया है। लेकिन स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें तो भाषा ऐसी है कि इन सबको भी समझमें आता है। इतना सुन्दर। गुरुदेवने उस पर उतने प्रवचन दिये। सचमुचमें तो हलवा तैयार हो गया, हमारे लिये।
समाधानः- स्वयंको करना बाकी रहता है। उतनी लगन लगानी, उतनी जिज्ञासा करनी, अपनी क्षति है।