Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

६६ आ जाये कि गुरुदेवके लिये ऐसा क्यों? अथवा दूसरे ज्ञानीके लिये ऐसा क्यों बोले? ऐसा विकल्प आये तो... माताजी! हम तो अज्ञानी हैं, ऐसे समयमें क्या करना?

समाधानः- ऐसे विकल्प नहीं करना, ऐसे विकल्प नहीं करना। (मुमुक्षुका) कार्य है कि मर्यादाके बाहर नहीं जाना। मर्यादासे बाहर जाये तो...

मुमुक्षुः- माताजी! अपने कोई भी मुमुक्षु मर्यादाकी हदका उल्लंघन करे, ऐसे हैं ही नहीं। गुरुदेवका अपार उपकार और आपका अपार उपकार है कि मर्यादाका उल्लंघन नहीं करते हैं। परन्तु सामनेवाले उल्लंघन करके यहाँ आ जाये और अपनेको कुछ भी करे तो क्या खडे रह जाना?

समाधानः- सामनेवाला मर्यादाका उल्लंघन करे तो उसका वह जाने, स्वयं मर्यादाका उल्लंघन नहीं करे। ...

मुमुक्षुः- बहिनश्री! कुन्दकुन्दस्वामी केवलज्ञानका स्वरूप जब गाथामें वर्णन करते हैं, तब तो सब अनुभवसिद्ध वर्णन करते हैं। केवलज्ञानका स्वरूप शास्त्रके आधारसे वर्णन करते हैं या उसप्रकारकी तर्कणासे केवलज्ञानका स्वरूप ख्यालमें लेते हैं? अनुभव तो केवलज्ञान..

समाधानः- आचायाकी क्या बात करनी, कैसे वर्णन करते हैं। आचार्य हैं सो आचार्य हैं। उनकी शक्ति तो कोई अलग ही होती है। उसमें भी कुन्दकुन्दाचार्यकी क्या बात! उन्हें तो अन्दर श्रुतज्ञान कोई अलग ही था। उनके अन्दर ऐसी कोई शक्ति थी, स्वयं अन्दरसे समझ सके। स्वानुभूतिमें केवलज्ञान प्रगट नहीं हुआ है, परन्तु सम्यग्दर्शनपूर्वक उनकी दशा अन्दर कहाँ तक टिकती है, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए मुनि (हैं)। और उनका ज्ञान यानी इस पंचमकालमें चारों ओर कुन्दकुन्द आम्नाय, कुन्दकुन्द आम्नाय (हो गया)। उनकी शक्ति कोई अलग थी। मात्र ऊपरसे विचार करके (कहते हैं), ऐसा नहीं। उनकी बात यानी बस... अंतर श्रुतज्ञान उनका कोई अलग था। श्रुतज्ञानसे बात करते हैं।

आता है न? श्रुतज्ञान और केवलज्ञान, दोनोंमें कोई नहीं देखना। मात्र प्रत्यक्ष, परोक्षका अंतर है। केवलज्ञानी प्रत्यक्ष देखते हैं, श्रुतज्ञानी परोक्ष देखते हैं। लेकिन दोनों समान है, ऐसा शास्त्रमें आता है। उसमें आचायाकी बात क्या करनी! आचायाने उसका रहस्य समझाया है। केवलज्ञानी सब प्रत्यक्ष देखते हैं, तो श्रुतज्ञानी सब परोक्ष देखते हैं।

मुमुक्षुः- उसमेंसे ऐसा अर्थ निकले कि केवलज्ञानीकी साक्षात भेंट हुई थी?

समाधानः- उसमेंसे विचार करे तो निकले कि केवलज्ञानीकी भेंट हुई थी। भेंट हुई थी, मानों नहीं भी हुई हो तो श्रुतज्ञानका स्वरूप ही ऐसा है कि श्रुतज्ञानी और