२५४ है। निमित्त होता है, परन्तु स्वयं जुडे तो होता है। निमित्त यह नहीं कहता है कि तू जबरन उसमें राग कर या इसमें द्वेष कर। बाहरके शब्द नहीं कहते हैं कि तू शब्द सून या तू शब्द सुनकर राग कर या द्वेष कर। ऐसा वह कोई नहीं कहते हैं। शब्द नहीं कहते हैं, स्वयं जुडता है। तू वापस मुड जा तो जबरन तुझे कोई नहीं कहता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थका पढा वह मुझे बहुत याद आता है कि आत्मा स्वयं .. हुए बिना, भाव्यका भावक हुए बिना दूरसे ही वापस मुड जाता है।
समाधानः- दूरसे वापस मुड जाता है। समयसारमें आता है। दूसरे वापस मुड जाता है।
मुमुक्षुः- .. वहाँ पुरुषार्थके दर्शन होते हैं।
समाधानः- दूरसे, अन्दर विभावमें जुडे बिना दूरसे वापस मुड जाता है।
मुमुक्षुः- वह वाक्य मुझे इतना पसन्द आ गया...।
समाधानः- .. ज्ञायक स्वयं स्वतंत्र, स्वयं पुरुषार्थ करके दूसरे वापस मुडता है। सब अपने हाथकी बात है। स्वयं जितना करता नहीं है, वह अपना प्रमाद है। स्वयं करे तो अपने हाथकी बात है। कर्म तो निमित्त है। निमित्त उसे रोकता नहीं है। निमित्त उसे रोकता नहीं है और निमित्त कुछ कहता भी नहीं है कि तू जुड जा।
मुमुक्षुः- आत्मा अनात्मा यानी जड ऊपर कोई प्रभाव डाल सकता है?
समाधानः- पर ऊपर कोई प्रभाव डाल नहीं सकता।
मुमुक्षुः- जो अरिहन्त, केवलज्ञानी होते हैं उनकी सौम्यमूर्तिसे उनका बाह्य आकार भी सौम्य हो जाता है, वह कैसे?
समाधानः- वे स्वयं अन्दर वीतराग हो गये, इसलिये उनका शरीर भी उस प्रकारके रजकण स्वतंत्र परिणमते हैं।
मुमुक्षुः- स्कंध उस प्रकारके बन्धते होंगे?
समाधानः- नहीं, उसके परमाणु वैसे बदल जाते हैं, स्वतंत्र। प्रभाव नहीं पडता है, स्वतंत्र अपनेआप हो जाता है। ऐसा सम्बन्ध है कि...
मुमुक्षुः- एकक्षेत्रावगाही इसलिये?
समाधानः- एक क्षेत्रमें रहते हैं। स्वयं अन्दर उपशमभाव करे, उपशमभाव हो गया इसलिये शान्त परिणाम हो गये। जैसे कोई मनुष्य क्रोध करे तो उसकी मुद्रामें क्रोध दिखता है। शांत मनुष्यकी शांत दिखती है। वह क्रोध और शान्ति अलग रहते है। परन्तु यह तो कुदरती एकक्षेत्रावगाह एकसाथ रहे हैं, इसलिये ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।