समाधानः- ... उसने एक ज्ञायकको ग्रहण किया है, आत्माको ग्रहण किया है। ऐसे विचारसे, बुद्धिसे नक्की करे (ऐसे नहीं)। अंतरमें मैं जाननेवाला ही हूँ, ऐसे ज्ञायकको स्वयंने अंतरमेंसे ग्रहण किया है। उसे ग्रहण करके, उस पर श्रद्धा-प्रतीत करके उसमें वह लीन होता है-उसमें स्थिर होता है। इसलिये बाह्य दृष्टि छूटकर वह अंतरमें लीन होता है। बाहरसे उपयोग अंतरमें (ले जाता है)। दृष्टि तो ज्ञायक पर है। उपयोग बाहर जाय तो भी उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर रहती है। परन्तु उपयोग भी बाहर जाता हो उसे स्थिर करनेके लिये वह ज्ञायकमें लीन होता है। अन्य कोई विकल्पमें लीन होता है, ऐसा नहीं। बीचमें विकल्प आये, पंच परमेष्ठीका विकल्प आये, द्रव्य-गुण- पर्यायके विचार आये वह अलग, वह शुभभाव है। परन्तु अंतरमें ज्ञायकमें लीन होता है। बारंबार ज्ञायकमें लीन होता है, ज्ञायकका ध्यान करता है।
मुमुक्षुः- वह सविकल्प ध्यान है?
समाधानः- भले सविकल्प हो, परन्तु ज्ञायकको ग्रहण करके ध्यान है। विकल्प उसमें गौण होता है और ज्ञायकमें लीन होता है।
मुमुक्षुः- उसमेंसे निर्विकल्प कैसे होता है?
समाधानः- ज्ञायकमें लीन होते-होते, जो-जो परिणाम विकल्प आये उससे मैं भिन्न हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे ज्ञायकमें लीन होते-होते उसे उग्रता तीव्र हो तो विकल्प छूटते हैं। उग्रता हो तो।
मुमुक्षुः- कहते हैं कि मैं बद्ध हूँ और अबद्ध हूँ, वह भी विकल्प है?
समाधानः- हाँ, वह भी विकल्प है।
मुमुक्षुः- तो फिर सविकल्पमेंसे निर्विकल्पमें जाना कैसे?
समाधानः- उसे विकल्प है कि मैं बद्ध हूँ-बन्धा हूँ, परन्तु अबद्ध हूँ, वह भी नयका विकल्प है। वह विकल्प यानी राग है कि मैं अबद्ध हूँ, अबद्ध हूँ। उस विकल्प परसे दृष्टि उठाकर, उपयोग उठाकर मैं जो हूँ सो हूँ, विकल्प नहीं। चैतन्यका अस्तित्व है वही मैं हूँ। एक मेरा अस्तित्व ज्ञायक वही मैं हूँ। ऐसे विकल्पको गौण करके ज्ञायकको ग्रहण करे। बारंबार उसमें लीन हो तो उसके विकल्प छूटे।