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एक ज्ञानस्वभावको, ऐसा आता है न? एक ज्ञानस्वभावको ग्रहण करके, निश्चय करके। मैं यह ज्ञानस्वभाव ही हूँ, मैं ज्ञान ही हूँ, ऐसा नक्की करके बादमें मति- श्रुतका उपयोग, ज्ञानका उपयोग जो बाहर जाता है उसे भी अंतरमें लाकर उसमें स्थिर हो तो विकल्प छूट जाय। लेकिन स्थिर होना, सच्चे ज्ञान बिना सच्चा ध्यान नहीं हो सकता। उसका ज्ञान सच्चा हो, ज्ञान सम्यक हो तो उसका ध्यान सच्चा हो। ज्ञान सच्चा हो तो सच्चा ध्यान हो। यदि उसके ज्ञानमें भूल हो तो, ज्ञायकको ग्रहण नहीं किया हो तो कहाँ स्थिर खडा रहेगा? विकल्पमें स्थिर खडा रहेगा, ज्ञायकको ग्रहण नहीं किया हो तो। ज्ञायकके अस्तित्वको ग्रहण किया हो तो उसमें उसकी स्थिरता जमती है, नहीं तो विकल्पमें स्थिरता जमती है। फिर ध्यान करे और विकल्प मन्द हो जाय तो उसे ऐसा लगता है कि विकल्प छूट गये। विकल्प सूक्ष्म हो गये। लेकिन ज्ञायकको ग्रहण करे तो सच्चा ध्यान होता है।
मुमुक्षुः- उस वक्त जो जड प्राण है, वह लीन होते है, उसकी गति भी ऐसी हो जाती है।
समाधानः- प्राण तो बाहर रह जाते हैं। लेकिन अंतरमें ज्ञायक चैतन्यको ग्रहण करे फिर प्राण कहाँ गये, उसका उसे ध्यान नहीं है। प्राण क्या, श्वासोश्वास है या क्या है, उस ओर उसका ध्यान भी नहीं है।
मुमुक्षुः- उसका न जाय, ओटोमेटिक प्राण लीन होते हैं और ...
समाधानः- वह बाहरसे होता होगा कि बाहरसे उसके प्राणी अलग प्रकारसे गति करते हो। लेकिन अंतरमें तो उसे ऐसा ही है कि मैं मेरे ज्ञायक लीन हो जाऊं, बस। उस जड प्राणकी ओर क्या होता है, उसका ध्यान नहीं होता।
मुमुक्षुः- ऐसा होता होगा क्या?
समाधानः- कुछ आता है, आता है, शास्त्रमें आता है। उसके प्राण ऊपरसे जाते हैं, ऐसा आता है।
मुमुक्षुः- जो बहिर प्राण होते हैं, उसमें ... जाता है।
समाधानः- लेकिन उसके श्वसोश्वास बन्द नहीं हो जाते। उसकी गति अलग हो जाती है, गति अलग हो जाती है।
मुमुक्षुः- क्योंकि जड प्राणोंसे छूटनेके लिये यह सब प्रयत्न है न?
समाधानः- जड प्राणोंसे छूटनेके लिये..
मुमुक्षुः- जड प्राण कर्मके कारण हैं।
समाधानः- भले उससे छूटनेका प्रयत्न है, परन्तु उसका प्रयत्न ज्ञायकको ग्रहण करनेका है।