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मुमुक्षुः- मुख्य तो वही है।
समाधानः- क्योंकि जड प्राणोंसे छूट जाऊँ, छूट जाऊँ ऐसा करे परन्तु अंतरमें स्वयंको ग्रहण नहीं किया हो तो कहाँसे (छूटे)? ऐसा ध्यान जीव बहुत बार करता है। ऐसा ध्यान करे कि बाहरसे कुछ भी हो तो उसे मालूम नहीं पडे। प्राण रोक ले, श्वासोश्वास रोक ले, ऐसा सब करे, परन्तु अन्दर ज्ञायक ग्रहण नहीं हुआ हो तो वह ध्यान कैसा? आता है न?
यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो, जप भेद जपे तप त्योंही तपै, ऊरसे ही उदासी लही सबसे।
सब करे। मौन रहा, ध्यान किया, .. करे, बाहरसे सब थँभ जाय ऐसा करे। अन्दर ज्ञायकको ग्रहण न किया हो तो... उसमें आता है, कुछ और रहा उन साधनसे। उसके साधनमें कुछ अलग ही है। अन्दर चैतन्यको ग्रहण नहीं किया हो तो बाहरसे सब ध्यान तो करे, परन्तु अंतरमें ग्रहण करे तो होता है। ऐसा ध्यान जीवने बहुत बार किया। उपवास किये, त्याग किया, यम किया, नियम पाले, परन्तु गुरु बताते हैं कि अन्दर तू तेरे आत्माको ग्रहण करके ध्यान कर।
मुमुक्षुः- इसीलिये तो मैंने कहा न कि, जो अंतरात्मा हुआ है उसका ध्यान इस प्रकारका होता है?
समाधानः- उसका ध्यान आत्माको ग्रहण करके, ज्ञायकको ग्रहण करके, चैतन्यको (ग्रहण करके होता है)। उसे चैतन्य अन्दरसे अपना अस्तित्व ग्रहण होता है। यह शरीर उसे ग्रहण नहीं होता, श्वासोश्वास नहीं, आँख नहीं, सुनना नहीं, उस ओर कहीं उपयोग नहीं है। विकल्पकी ओर उपयोग है उसे स्वयं भिन्न करके एक ज्ञायककी ओर जाय। बस, एक चैतन्य। चैतन्यके अलावा कुछ नहीं। मैं एक आत्मा ज्ञायक। उसका स्वभाव ग्रहण करे।
विकल्पसे रटण करता रहे, मैं ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक। ऐसे तो विकल्प होता है। परन्तु वस्तु जो पदार्थ है, उस पदार्थको ग्रहण करके ध्यान करे तो होता है। सबसे भेदज्ञान करे, मैं यह नहीं हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ, मैं विकल्प नहीं हूँ, यह रागयुक्त विकल्प मेरे नहीं है। जो-जो शुभभाव, शुभभावके विकल्प आये वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। उन सबसे मैं भिन्न (हूँ)। भिन्न हूँ, ऐसा विकल्प करे लेकिन मैं भिन्न कैसा? कौनसी वस्तु है? कि मैं यह वस्तु हूँ। यह मैं जाननेवाला सबके बीच रहनेवाला। यह सब जड है। यह विकल्प आये, मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे विकल्प आये परन्तु वह मेरा स्वरूप नहीं है। वह तो विकल्पकी जाल है। उससे भी मैं निराकुल स्वरूप जाननेवाला, सबको जाननेवाला सो मैं हूँ। वह जाननेवाला सबको जाननेवाला ऐसे नहीं, परन्तु अन्दर