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मुमुक्षुः- .... मुनि होकर पेशन्टको ट्रिट नहीं करते।
समाधानः- श्रद्धा हो, भेदज्ञान हो उसे अवश्य भवका अभाव होता है। उसे अवश्य चारित्र आता है, उसे अवश्य मुनिदशा आती है, परन्तु वर्तमानमें उसे मुनिदशा नहीं होती।
मुमुक्षुः- नग्नभाव, मुंडभाव सह अस्नानता।
समाधानः- .. आत्माकी सेवा करनेका गुरुदेवने बताया है। आत्माका विचार करना, आत्माकी जिज्ञासा, तत्त्वका विचार करना। आत्मा कौन है? उसका स्वरूप क्या है? वह ज्ञानस्वभाव है, आनन्दस्वभाव है। उसका आत्माका विचार करना। देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा शुभभाव है, परन्तु अन्दर शुद्धात्मा भिन्न है। शुद्धात्माका विचार करना। उसका भेदज्ञान कैसे हो? यह सब विभावभाव है, उससे भिन्न होकर न्यारा कैसे हुआ जाय? यह सब विचार करना। द्रव्य-गुण-पर्यायका (विचार करना), शास्त्रमें क्या आता है? गुरुदेवने क्या बताया है? यह सब विचार करना।
मुमुक्षुः- मात्र विचारसे नहीं होता।
समाधानः- आत्माको ग्रहण करना। विचार करके नक्की करना। आत्माको ग्रहण करना कि यह आत्मा है वही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं। यह ज्ञायक स्वभाव है वही मैं हूँ, दूसरा कुछ मेरा स्वरूप नहीं है। ज्ञायकको ग्रहण करना, उसे भिन्न करनेका प्रयत्न करना, एकत्वबुद्धि है उससे भिन्न होकर क्षण-क्षणमें मैं भिन्न हूँ, उसकी भावना, जिज्ञासा और उस प्रकारका प्रयत्न परिणतिमें कैसे ऊतरे? जो विचारसे नक्की करे वह परिणतिमें कैसे ऊतरे? उसका प्रयास करना। वह करनेका है। वह सहजरूप कैसे हो? विचारमें निर्णय किया लेकिन वह परिणतिरूप कैसे हो? उसका प्रयास करना। विचारसे नक्की करके फिर आगे जाना है। परन्तु जबतक अन्दर सहजरूपसे ग्रहण न हो, तबतक विचार, वांचन आदि सब आता है। शास्त्र स्वाध्याय, उसके विचार, मनन (आदि होता है)। आगे कैसे बढना? स्वानुभूति कैसे हो? वह सब जिज्ञासा करनी। करना तो एक ही है, भवका अभाव कैसे हो? और ज्ञायक कैसे ग्रहण हो? और आत्माकी स्वानुभूति कैसे हो? करना तो यह एक ही है।
ज्ञानस्वभाव नक्की करके फिर उसे ग्रहण करके आगे बढा जाता है। परन्तु पहले नक्की करनेमें ही उसे यथार्थ प्रतीति, विचार करके बराबर यथार्थ जैसा है वैसा नक्की करके आगे बढा जाता है।
मुमुक्षुः- ऐसा आता है न कि, ज्ञानलक्षणसे पहचानकर। यानी जहाँ ज्ञान है वहीं आत्मा है।
समाधानः- ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ। वह लक्षण उसका