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मुमुक्षुः- कर्मका नाश करना चाहते हैं, परन्तु बन्धते ही जाते हैं, बन्धते ही जाते हैं, उसका अंत कहाँ है?
समाधानः- कर्म बन्धते ही जाते हैं उसमें स्वयंका कारण है। स्वयं एकत्वबुद्धि करके अटका है। अन्दर जो राग और द्वेष (होते हैं), उसके साथे एकत्वबुद्धि की है। कर्मको स्वयं बान्धने नहीं जाता है, कर्मको स्वयं छोडने नहीं जाता। परन्तु स्वयं अन्दर जो विकल्पकी जालमें फँसा है, अन्दरमें एकत्वबुद्धि करके अन्दरसे स्वयं भिन्न पडता है इसलिये कर्म छूटते नहीं है। स्वयं अन्दरसे विकल्पसे छूट जाये और उससे मैं भिन्न हूँ, ऐसे अपने तत्त्वको ग्रहण करे तो अन्दरसे स्वयं छूट जाता है, तो कर्म छूट जाते हैं। स्वयं अन्दरसे छूटता नहीं है, इसलिये कर्म भी नहीं छूटते हैं।
मुमुक्षुः- वह कैसे?
समाधानः- स्वयं अन्दरसे भिन्न पडना चाहिये कि मैं तो आत्मा हूँ, मैं तो चैतन्य जाननेाला हूँ। यह शरीर मैं नहीं हूँ। शरीरके साथ एकत्वबुद्धि (हो रही है)। भले उसे अभी एकदम नहीं छूटे, अन्दरसे ज्ञान करके, विचार करके मैं तो चैतन्य ज्ञायक हूँ, यह जड शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो जाननेवाला हूँ, यह राग-द्वेष मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो जाननेवाला आनन्दसे भरा आत्मा हूँ। इसप्रकार बारंबार विचार करके उसका स्वभाव पहचाने और बारंबार उससे निर्लेप रहनेका प्रयत्न करे, उससे भिन्न रहनेका प्रयत्न करे। बारंबार अन्दरसे यदि स्वयं निर्लेप रहे और भिन्न रहनेका प्रयत्न करे तो स्वयं भिन्न ही है। परन्तु अन्दर स्वयं फँसा है कि मैं बन्धा हूँ, राग-द्वेष और शरीर मैं, शरीर मैं और मैं शरीर, ऐसी एकत्वबुद्धि हो गयी है। यह शरीर है वही मैं हूँ और शरीर ही मेरा स्वरूप है, ऐसी एकत्वबुद्धि और यह कल्पनाकी जाल होती है वह सब मैं ही हूँ, उससे मैं भिन्न हूँ ऐसा ज्ञान करे तो छूट सकता है।
स्वयं अन्दरसे भिन्न पडे तो कर्म छूट जाते हैं। स्वयं भिन्न पडता है इसलिये कर्म बन्धते जाते हैं। शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो जाननेवाला हूँ। अन्दर विचार करे तो ख्याल आये कि मैं तो जाननेवाला हूँ। इससे मैं भिन्न ही हूँ, इसप्रकार स्वयं भिन्नताकी भावना करे, उसका प्रयत्न करे तो छूट सकता है। स्वभावसे भिन्न ही है, परन्तु बन्ध गया