हूँ ऐसा मान लिया है कि मैं बन्ध गया हूँ।
पहले प्रयत्न करके भिन्न होवे, भावना करे, लेकिन द्रव्य तो भिन्न ही है। लेकिन स्वयं ऐसी परिणति करे, भिन्नता रूप स्वयं परिणमन करता जाये तो फिर भिन्न पड जाता है। कर्म छूट जाते हैं, भवका अभाव हो जाता है, अन्दरसे छूट जाये।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनको ही ध्येय रखना या गौणरूपसे दूसरा भी कोई ध्येय पडता है?
समाधानः- सम्यग्दर्शन यानी आत्माकी प्राप्ति करनी वही एक ध्येय रखना है। दूसरा ध्येय क्या? दूसरा कोई ध्येय रखने जैसा नहीं है। उसमेंसे उसे कोई आत्माकी सिद्धि, सुख नहीं मिलने वाला है। बाहरका तो सब पुण्याधीन है, वह अपने हाथकी बात नहीं है। बाहरसे मैं पैसे प्राप्त करुँ, दूसरा कोई कार्य करुं या दूसरेका कुछ करुँ, वह अपने हाथकी बात नहीं है। वह तो स्वयंके पुण्य अनुसार, दूसरेके पुण्य अनुसार होता रहता है, दूसरेके पापके उदयके कारण जैसा होना हो वैसा होता रहता है। स्वयंके पुण्य-पापके उदय अनुसार होता रहता है, वह कुछ नहीं कर सकता। मात्र भाव करता है, राग करता है, द्वेष करता है, वह सब करता है, बाकी कुछ नहीं कर सकता। एक ही कार्य कर सकता है कि स्वयं आत्मा है, उस आत्माकी प्राप्ति कर सके। दूसरा बाहरका कुछ नहीं कर सकता, मात्र मानता है कि मैं बाहरका कर सकता हूँ।
मुमुक्षुः- जीवनमें एक ही ध्येय रहा कि स्वरूप समझना।
समाधानः- एक आत्माकी ही प्राप्ति। जिसे आत्मा चाहिये, उसके लिये आत्माकी प्राप्ति। नहीं चाहिये उसके लिये तो संसार तो है ही। वह तो अनादिका है। जिसे आत्मा चाहिये, आत्मदेवके दर्शन जिसे करने हैं, उसके लिये उसे ध्येय रखना है। जिसे वह नहीं है, जिसे उसकी इच्छा नहीं है, उसे संसार है ही। उसके लिये तो संसारके सभी कार्य है ही। वह तो अनादिसे है ही। शुभाशुभ दोनों है।
.. जबतक नहीं हो तबतक भावना करे, विचारादि सब करे। शुभभावमें देव- गुरु-शास्त्रको उसके हृदयमें रखे। जिनेन्द्रदेव, गुरु, शास्त्र, जो आत्माको दर्शानेवाले हैं, जिसने आत्माकी साधना की है, जो पूर्ण हो गये हैं, जो मुनि साधना करते रहते हैं, जो आत्माकी साधना करते हैं, शास्त्रमें जो आत्माकी बातें आती हैं, उन सबकी महिमा रखे। वह शुभभाव है। परन्तु ध्येय तो एक आत्म-प्राप्तिका रखना।
मुमुक्षुः- ... उस परिणतिमें निर्विकल्प हो। विकल्प चलते हैं तबतक तो वास्तविक रूपसे तो भिन्न नहीं पड सकता।
समाधानः- विकल्प होते हैं तबतक भिन्न नहीं पडता है, परन्तु उस ओर दृष्टि