२६८
मुमुक्षुः- इस मर्यादासे आगे नहीं जाना है।
समाधानः- उस मर्यादासे आगे जायेगा तो अशुभभावमें जायेगा, वहाँ नहीं जाना है। अन्दरमें तेरी जिज्ञासा, लगन तो यही रखनी है, श्रद्धा तो यही रखना कि यह शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र।
.. न कर सके तो श्रद्धा तो बराबर करना, शास्त्रमें आता है। श्रद्धा बराबर रखना कि मार्ग तो यही है। इन सबसे भिन्न आत्मा शुद्धात्मा (है)। उसका द्रव्य- गुण-पर्यायका स्वरूप पहचाननेसे, उसे ग्रहण करनेसे, उसमें लीन होनेसे प्रगट होता है। बाकी बीचमें कोई परका आश्रय (लेना) वह आत्माका स्वरूप नहीं है। अन्दर तेरे आत्माका आश्रय लेना। श्रद्धामें यह रखना है। वह नहीं हो सके तो बाहरमें देव- गुरु-शास्त्रका आश्रय होता है, व्यवहारसे।
देशनालब्धि होती है उस वक्त भगवान और गुरुकी वाणीका निमित्त होता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध (है)। करना स्वयंको है, परन्तु निमित्तमें देव और गुरु साक्षात होते हैं।
मुमुक्षुः- .. निर्णय तक। उसमें भी यह ... समय-समयमें तू भिन्न पडनेका, अनुभव करनेका प्रयत्न कर कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ, मैं तो ज्ञायक ही हूँ। अर्थात उपयोग भी उसके पास है और विषय भी उसके पास है। फिर भी वह इतना कठिन पडता है, इस अभ्यासके कारण, कि वहाँसे छूटकर अनुभव करनेमें, विकल्पात्मक अनुभव करनेमें भी उतना ही समय लगता है और इतना कठिन लगता है।
समाधानः- यह अभ्यास बहुत हो गया है न। अनादिका। उससे भिन्न पडनेमें, परिणतिमें उसे छोडनेमें दिक्कत होती है। विचारसे नक्की किया हो तो भी उसे भिन्न करनेके कार्यमें उसे कठिन पडता है। क्योंकि अनादिकी परिणति उसे साथ-साथ चली आ रही है।
(समझ) पीछे सब सरल है। वह भिन्न पडे तो फिर उसकी पूरी लाईन सरल है। परन्तु प्रथम भूमिका उसे विकट है। क्योंकि अनादिकी उसे एकत्वबुद्धि हो रही है। स्वयं अपनेआप प्रयत्न करते-करते, आत्मा स्वयं ही अन्दरसे मार्ग कर देता है। जिसे खरी जिज्ञासा और लगन होती है उसे।
... निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। कोई किसीका कर्ता नहीं है। देशनालब्धि होती है तब भगवानका, गुरुका निमित्त होता है और अपने उपादानकी तैयारी (होती है), ऐसा सम्बन्ध सर्व प्रथम बार, साक्षात देव और गुरुका योग होता है, परन्तु निमित्त निमित्तमें (रहता है)। निमित्त प्रबल है। निमित्त निमित्तमें, उपादान उपादानमें। एक-एक परमाणु सब स्वतंत्र है, सब स्वतंत्र हैं, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। एक परमाणुके द्रव्य-