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गुण-पर्याय स्वतंत्र। सबके द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र।
मुमुक्षुः- मामाको बात करी कि अभी कठिन लगती है परन्तु साथमें ऐसा भी बैठता है कि इसके सिवा छूटकारा नहीं है और यही उपाय है। ऐसा अनुभव करनेसे सरल हो जायगा और ऐसे सरल होने पर निर्विकल्प होनेका अवकाश ऐसे ही आयेगा, यह बात माताजी! बराबर बैठती है। अभी जरूर कठिन लगता है ऐसा प्रयास करना।
समाधानः- विकल्प भी वही है, उसे भिन्न करके, एकत्वबुद्धि तोडकर ज्ञायककी धारा प्रगट करनी। एक ही उपाय है। द्रव्यको ग्रहण किया, द्रव्य पर दृष्टि की परन्तु दृष्टि करके उसे टिकाना, उसे भिन्न करना यह कार्य (करना है)। जो मान्यतामें लिया कि मैं भिन्न हूँ, यह विभाव स्वभाव मेरा नहीं है। मैं भिन्न हूँ। भिन्न नक्की किया तो वह सत्यरूपसे नक्की कब कहा जाय? कि उस रूप कार्य हो तब। भिन्न है वह भिन्न ही है। तो फिर एकत्वबुद्धि हो रही है। उसे सत्य नक्की करके उसे अन्दर भिन्न करनेका प्रयत्न हुए बिना रहता नहीं। अन्दर प्रयास करनेपर सत्य तो यही है, मार्ग यही है।
श्रद्धारूप परिणति जिसे कहते हैं, वह श्रद्धा जो विचारसे श्रद्धा करे वह अलग, उसमें तो श्रद्धाकी परिणति होती है। दृष्टि और भेदज्ञानकी परिणति। वह अभी श्रद्धारूप है। लेकिन वह श्रद्धा कैसी? परिणतिरूप होती है। परिणतिका कार्य करती है वह। विशेष चारित्र होता है वह अलग। यह तो श्रद्धाके साथ अमुक प्रकारकी लीनता (होती है)। उसमें अनन्तानुबन्धि साथमें छूट जाता है। इसलिये अमुक प्रकारकी परिणति हो जाती है।
मुमुक्षुः- अनुभव होनेसे पहले ऐसा सहज निर्विकल्पपने हो, अनुभव पहले भी ऐसा विकल्पात्मक सहजपने...?
समाधानः- सहजपने, उसे परिणति सहज होती जाती है। उसमें उसे स्वानुभूतिका अवकाश है। किसीको थोडे प्रयत्न बिना एकदम हो जाता है, वह अलग बात है। किसीको एकदम नक्की हुआ और तुरन्त भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो जाती है, वह एक अलग बात है। ऐसे भी कोई जीव होते हैं। जैसे शिवभूति मुनि जैसे एकदम पलट गये। परिणति एकदम पलट गयी।
मुमुक्षुः- माताजी! आज धन्य घडी, धन्य भाग्य हमारे कि आज हमें आपको हीरेसे वधानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। मोक्षमार्गके प्रणेता पूज्य माताजी! अनन्त कालसे परद्रव्य और रागका भजन इस जीवने अनादि कालसे किया है। तो अब आपके प्रतापसे आत्माका भजन कैसे करें कि जिससे सादिअनन्त मोक्षसुखको प्राप्त करें?
समाधानः- जैसी जीवको बाह्य दृष्टि है, उसका अनादिसे भजन करता आ रहा