Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

२७० है। गुरुदेवने बहुत किया है कि तू ज्ञायकको देख, ज्ञायकका स्मरण कर, ज्ञायकको लक्ष्यमें ले, ज्ञायकका ही तू बारंबार रटन कर। बाहरका रटन छोडकर ज्ञायकका रटन कर। ज्ञायकका लक्षण पहचाने। उसका ज्ञानलक्षण जो असाधारण लक्षण है, उस लक्षणसे वह पहचानमें आता है और उस लक्षण द्वारा लक्ष्य अर्थात वस्तुको पहचानकर बारंबार उसीका रटन, मनन एवं बारंबार उसमें निर्णय करके उसे ग्रहण करके उसका आश्रय ले। बारंबार करे तो वह प्रगट हो ऐसा है।

अनादिसे जो किया है, राग और विकल्पोंका स्मरण उसे बारंबार होता है। परन्तु आत्माका स्मरण करता नहीं है, ज्ञायकका स्मरण नहीं करता है। उसे बारंबार ज्ञायकका स्मरण हो ऐसी जिज्ञासा, रुचि, ज्ञायकमें ही सर्वस्व है, बाहर कहीं नहीं है ऐसी ज्ञायककी श्रद्धा हो। ज्ञायकमें ही सब भरा है, बाहर कहीं नहीं है। ऐसा ज्ञायकका विश्वास आये। ज्ञायकमें आनन्द है, बाहर कहीं नहीं है, ऐसा विश्वास आये तो वह ज्ञायकका रटन करे और वही करने जैसा है। बारंबार ज्ञायक, ज्ञायकदेवका स्मरण करे। वह न हो तबतक देव-गुरु-शास्त्रका स्मरण करे। अंतरमें ज्ञायकदेवका स्मरण करे। ज्ञायक कैसा है, उसकी प्रतीति करे। ज्ञायक कोई अदभुत है, अनुपम है। उसका लक्षण पहचानकर बारंबार निश्चय करे तो हो सके ऐसा है। परन्तु वह भेदज्ञान द्वारा होता है। ज्ञायकका लक्षण पहचानकर होता है।

भेदज्ञान द्वारा होता है। परन्तु उतनी स्वयंकी जिज्ञासा और रुचि हो तो करता है। उसे भिन्न करे, उसे बारंबार भिन्न करनेका प्रयत्न करे तो होता है। लक्षण पहचानकर उसे प्रज्ञाछैनी द्वारा भिन्न करे तो होता है। बाकी अनादिका अभ्यास है इसलिये मुश्किल हो गया है, दुर्लभ हो गया है। परन्तु अपना स्वभाव है इसलिये सुलभ है, दुर्लभ नहीं है। परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- लगता है कि आत्मामें ही आनन्द भरा है, परन्तु जीव मानता नहीं है। विश्वास आना चाहिये कि उसके बिना मुझे एक क्षण भी नहीं चलेगा, उसके लिये जो पुरुषार्थकी निरंतर जागृति चाहिये, वह नहीं रहती।

समाधानः- वह स्वयं करे तो ही हो सके ऐसा है। कोई उसे कर नहीं देता। इतना विश्वास अन्दरसे स्वयं लावे तो ही हो सके ऐसा है। उसका विश्वास लाकर अनन्त जीव मोक्षमें गये हैं, अनन्त जीवोंने आत्माका स्वरूप प्रगट किया है। वह स्वयं करे तो हो सके ऐसा है। वह किसीसे हो ऐसा नहीं है। स्वयं करे तो ही होता है। वह विश्वास स्वयंको ही लाना है। जल्द या देरसे स्वयं ही विश्वास लाये, स्वयंको उसकी जरूरत लगे, स्वयंको ही करना है।

देव-गुरु-शास्त्र महा निमित्त हैं, परन्तु करना स्वयंको ही है। ऐसा पुरुषार्थ करके