२७४ अंश है। द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी और उस ओर जो ज्ञान गया, वह ज्ञान भी सम्यकरूपसे केवलका अंश है। मति-श्रुतका भेद निकाल देना। एक ज्ञायक।
"आ ज्ञानपद परमार्थ छे, ते...' वह ज्ञानपद। उसका जो अंश प्रगट हुआ वह केवलका अंश है। केवलज्ञान भी ज्ञानका एक भेद है। ज्ञानका अंश है। जो अंश प्रगट हुआ वह पूर्णता लायेगा।
मुमुक्षुः- जो अंश प्रगट हुआ वह पूर्णता भी लायेगा और वर्तमानमें जो स्वभाव है, उसे...
समाधानः- जो स्वभाव है वह पूर्ण है। उसने पूर्णको दृष्टिमें लिया है और ज्ञानमें लिया है। पूर्णको दृष्टिमें लिया है, पूर्णको ज्ञानमें लिया है। भले प्रत्यक्ष नहीं है, परन्तु परोक्षमें उसे ज्ञानमें लिया है। उसका वेदन प्रत्यक्ष है। उसका ज्ञान भले प्रत्यक्ष नहीं है, परन्तु परोक्षमें उसने पूर्णको ज्ञानमें ले लिया है। .. नहीं है, परन्तु परिणतिरूप है।
मुमुक्षुः- ऐसे तो उसे केवलज्ञान हाथमें आ गया, ऐसा कोई अपेक्षासे..?
समाधानः- केवलज्ञान हाथमें आ गया है। दृष्टि अपेक्षासे, ज्ञान अपेक्षासे केवलज्ञान हाथमें आ गया है। उसकी विशेष परिणति करनी बाकी है, बाकी तो उसके हाथमें आ गया है। भेदज्ञानकी धारा प्रगट हुयी, ज्ञायककी धारा प्रगट हुयी, स्वभावकी ओर दृष्टि गया, स्वभावकी ओर ज्ञान गया, उसकी स्वानुभूति हुयी, इसलिये केवलज्ञान उसके हाथमें-हथेलीमें आ गया है। पूर्णता, पूर्ण स्वरूप उसके ज्ञानमें और दृष्टिमें आ गया है। उसके वेदनमें उसका अंश आ गया है।
मुमुक्षुः- माताजी! मुनि महाराज श्रेणि लगाये उस वक्त तो निर्विकल्प दशा होती है। उपयोग अन्दर रहे और केवलज्ञान हो तब क्या फर्क पडा?
समाधानः- श्रेणि लगाये तो निर्विकल्प दशाकी उग्रता है। केवलज्ञान होता है तब वीतरागता पूर्ण होती है और ज्ञानकी परिणति प्रत्यक्ष परिणति हो जाती है, केवलज्ञान होता है तब। उसकी ज्ञानकी जो परिणति थी वह परोक्षरूप थी, वह प्रत्यक्षरूप हो जाती है। उसका जो मनका थोडा अवलम्बन था वह भी छूटकर, केवलज्ञान होनेसे ज्ञान परिणति प्रत्यक्ष हो गयी। वीतरागदशा प्रत्यक्षरूपसे वेदनमें आ जाती है। वीतरागदशाकी क्षति थी। जब श्रेणी लगायी तब निर्विकल्प दशा थी, परन्तु वीतराग दशाकी क्षति थी। ग्यारहवें गुणस्थानमें उपशांत है। सब शांत हो गया है। क्षीणमोहमें क्षय होता है। परन्तु वीतरागदशाकी क्षति है। केवलज्ञान होता है तब वीतरागदशा पूर्ण हो जाती है। एकदम वीतरागदशाकी पूर्णता होती है, चारित्र पूर्ण हो जाता है। अब रागका अंश उदभव नहीं होनेवाला है। अबुद्धिमें भी नहीं है। अबुद्धिमेंसे छूट जाता है। इसलिये अबुद्धिमें राग रहता नहीं, ऐसी वीतरागदशाकी पूर्णता (हो जाती है)। एकदम अन्दर गया तो बाहर