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नहीं आता है। ऐसी वीतरागदशाकी पूर्णता हो जाय, उस वीतरागदशाके साथ ज्ञान भी पूर्ण हो जाय, ऐसा उसे सम्बन्ध है।
वीतरागदशाकी पूर्णता और ज्ञानकी पूर्णता। ज्ञान उपयोगात्मकरूपसे प्रत्यक्ष परिणमन करने लगता है, जहाँ वीतरागता होती है वहाँ। पूर्ण वीतरागता। सब क्षय हो जाता है। रागका एक भी अंश उत्पन्न नहीं होता है। श्रुतके चिंतवनकी ओर जाता था, उपयोग तो उसमें अबुद्धिपूर्वक है, तो भी वह छूटकर भी एकदम वीतरागदशा हो जाती है। एकदम शांतरस हो जाता है। उसके साथ ज्ञान भी प्रत्यक्षरूप हो जाता है। बाहर कहीं देखने नहीं जाते। परन्तु ज्ञानस्वरूप जो आत्मा है वह प्रगट उपयोगात्मकपने सहज हो जाता है। देखने नहीं जाते। वीतरागदशाकी पूर्णता इसलिये केवलज्ञान पूर्ण हुआ। ज्ञान पूर्ण हो जाता है। उसके साथ सब पूर्ण हो जाता है। जिन-जिन गुणोंकी अल्पता थी वह सब पूर्ण हो जाते हैं। परम अवगाढता हो जाती है। परम अवगाढ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब पूर्ण हो जाते हैं। अनन्त चतुष्ट पूर्ण हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- जो उपयोग अन्दर रखा वह तो अन्दर ही गया?
समाधानः- अन्दर ही रह गया, उपयोग बाहर ही नहीं आया। अन्दर जम गये। जम गये सो जम गये, बाहर ही नहीं आये। अन्दर ही रहा। श्रेणि लगायी वहाँ अबुद्धिपूर्वक विकल्प थे, बाकी उपयोग अन्दर ही था। उसकी विशेष स्थिरता होते-होते उसे अंतर्मुहूर्तमें श्रेणी चढ गये और वीतरागदशा पूर्ण (हुयी तो) उपयोग अन्दर ही रह गया। वह उपयोग जो स्वानुभूतिमें कार्य करता था, वह स्वानुभूतिमें सब प्रत्यक्षपने, उसे सब प्रत्यक्ष हो गया, वीतरागदशाकी पूर्णता हो गयी। उसे देखनेकी कोई इच्छा नहीं है। वीतरागदशाकी पूर्णता और प्रगट उपयोगात्मक ज्ञान हो जाता है। एक-एक ज्ञेयको जानने नहीं जाना पडता। सहज प्रत्यक्ष हो जाता है।
मुमुक्षुः- उपयोग अन्दर ही रहता है, लोकालोक ज्ञात हो तो...
समाधानः- उपयोग बाहर नहीं रखना पडता, लोकालोकको जाननेके लिये। उपयोग तो अन्दर स्वानुभूतिमें लीन हो गया। उपयोग बाहर नहीं जाता है। स्वानुभूतिमें उपयोग लीन है। उसमें प्रत्यक्ष परिणति हो जाती है। जो परोक्षरूप थी वह प्रत्यक्ष हो जाती है। वीतरागदशाकी पूर्णता और ज्ञानकी पूर्णता। जैसा आत्मासे स्वभावसे है, वैसा ही आत्मा वैसाका वैसा रह जाता है। जो बाहर जाता था वह बाहर जाना छूट गया। जैसा आत्मा है वह प्रगटपने परिणमनरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसा है वैसा चैतन्यब्रह्म आत्मा ब्रह्मस्वरूप आत्मा जैसा है वैसा स्वयं प्रगटरूपसे परिणमता है।
अनन्त गुण-पर्यायमें स्वयं परिणमता है। अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त बल, जो अनन्त-अनन्त गुण है, उस रूप स्वयं प्रत्यक्षपने परिणमते हैं। लोकालोक