Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-११३

क्षण वीतरागदशा (होती है), उसी क्षण केवलज्ञान (होता है)। जबतक वीतरागदशाकी क्षति, तबतक केवलज्ञान नहीं (होता)।

... अंतर कम होता जाय तो थोडा-थोडा सम्यग्दर्शन होता जाय, ऐसा नहीं है। जिस क्षण उसे छूटकर यथार्थ हो उसी क्षण (सम्यग्दर्शन होता है)। थोडा-थोडा होता जाय ऐसा नहीं है। उसके पहले विचाररूप, भावनारूप श्रद्धा कहते हैं। सम्यक कहलाता नहीं, सम्यक परिणति नहीं कहलाती। जबतक सम्यकतामें क्षति है, वह स्पष्ट सम्यक नहीं कहलाता। वहाँ पर आचरणकी क्षति है। आचरणकी क्षति है तबतक दूसरे आचरणमें रुका है ... पूर्णता नहीं है। उसमें पूर्णता नहीं है तो उसमें पूर्ण ज्ञान भी नहीं है। अटका है।

समाधानः- ... करने जैसा यही है, दूसरा कुछ करने जैसा नहीं है। संसारमें किसी भी प्रकारका विभावमें सुख नहीं है। बाहरमें कहीं सुख नहीं है, परपदार्थमें सुख नहीं है। अन्दरमें स्वयंको ऐसा नक्की हो और आत्माकी रुचि हो कि आत्मामें ही सब है, सर्वस्व है, कैसे पहचानमें आये? आत्माकी ओर रुचि हो तो उसके साथ तत्त्व चिंतवन, आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्माका क्या स्वरूप है? आत्मा किस स्वरूप है? द्रव्य क्या है? गुण क्या है? पर्याय क्या है? उसे कैसे पहचानूँ? उसकी रुचि हो तो तत्त्व चिंतवन चले। तत्त्व चिंतवनके लिये अन्दरकी रुचि चाहिये। और तत्त्व चिंतवन ज्यादा नहीं चले तो शास्त्र स्वाध्याय करे और उसमेंसे विचार करे। गुरुदेवने क्या कहा है? क्या मार्ग बताया है? उस मार्गका स्वयं विचार करे, तत्त्व चिंतवन करे। आत्माका क्या स्वरूप है? द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है? यह विभाव क्या है? स्वभाव क्या है? मोक्ष क्या है? मोक्ष कैसे प्रगट हो? गुरुदेवने क्या कहा है? इस प्रकार तत्त्व चिंतवन स्वयंको रुचि हो और पहचाननेकी स्वयंको लगन हो तो तत्त्व चिंतवन होता है। तत्त्व चिंतवन अन्दर बिना रुचिके नहीं होता। रुचि बढाये तो तत्त्व चिंतवन भी साथमें चले। और उसके लिये गुरुदेवने कहा है, विचार करे, शास्त्रका स्वाध्याय करे तो उसमेंसे विचार चले।

करनेका मार्ग तो एक ही है कि भेदज्ञान करके कैसे आगे बढना? आत्माका क्या स्वभाव है? विभाव अपना स्वभाव नहीं है। उससे स्वयंको भिन्न करनेका प्रयत्न करे। परन्तु आत्माको पहचाने तो तत्त्व चिंतवनसे हो। वह नहीं हो तबतक शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा होती है। अंतरमें शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाय? उसकी रुचि होनी चाहिये। शुद्धात्मा तो भिन्न ही है। शुद्धात्मा भिन्न है, निर्विकल्प स्वरूप है, वह कैसे पहचानमें आये? उसका विचार करे तो होता है।

मुमुक्षुः- ...