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समाधानः- प्रमोद भी स्वयंको आत्माकी महिमा आये तो होता है। बाहरमं कहीं महिमा नहीं है। कोई चीज, वस्तु बाहरकी कोई महिमा करने योग्य नहीं है। बाह्य पदार्थ कोई आश्चर्यभूत नहीं है। यह देवलोक आदि बाह्य पदार्थ अनन्त बार प्राप्त हुए हैं। वह कोई नवीन नहीं है। नवीन तो एक आत्मा ही महिमावंत है। ऐसा स्वयंको नक्की हो तो आत्माकी महिमा आये।
अनन्त कालमें जीवको सब प्राप्त हो गया है, एक आत्मा नहीं प्राप्त हुआ है, एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। सम्यग्दर्शन ही कोई अलग अपूर्व वस्तु है। ऐसा स्वयंको नक्की होना चाहिये। देवलोकके देव,... वहाँ अनन्त बार जन्म धारण किया है, बाहरमें राजा आदि हुआ है, वह सब कोई सुखरूप नहीं है, वह कोई महिमारूप नहीं है। वह तो सब परपदार्थ है। ऐसा स्वयं नक्की करके आनन्द आत्मामें ही भरा है। आत्मा कोई आश्चर्यकारी वस्तु है, ऐसा नक्की करे तो होता है। सम्यग्दर्शन अनादि कालसे प्रगट नहीं हुआ है। वह कोई अपूर्व वस्तु है। स्वयं नक्की करे तो होता है।
मुमुक्षुः- वह कैसे हो?
समाधानः- उसकी लगन लगे तो पहचान होती है। विचार करे। गुरुदेवने क्या कहा है? उसका विचार करे, प्रयत्न करे तो होता है। उसे नक्की करना चाहिये कि यह शरीर तो भिन्न ही है, कुछ जानता नहीं है। अन्दर जाननेवाला कोई अलग ही है। अन्दर जाननेवाला तत्त्व एक वस्तु है। यह विभाव सब आकुलतारूप है। सब भाव आकुलस्वरूप है। उससे (भिन्न) निराकुल तत्त्व अन्दर जाननेवाली कोई वस्तु है। उसमें आनन्द भरा है। उसकी पहचान, स्वयंको उसकी जिज्ञासा हो तो होती है। जिज्ञासाके बिना नहीं होती। तदर्थ शास्त्रमें क्या आता है? गुरुदेवने क्या कहा है? सबका विचार करे तो होता है। जाननेवाला तत्त्व अन्दर कोई अलग है। वह जाननेवाला है। सिर्फ ज्ञानमात्र नहीं है, अनन्त महिमासे भरी ज्ञायक वस्तु है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- प्रतिकूलताके समय विचार करना कि मैं तो आत्मा हूँ। यह प्रतिकूलता मेरे आत्मामें नहीं है। मैं तो एक चैतन्य हूँ। प्रतिकूलता मेरे आत्माको कोई नुकसान नहीं करती है। वह तो बाह्य पुण्य-पापका (उदय है)। अनुकूलता, पुण्यका उदय हो तो अनुकूलता होती है, पापके उदयसे प्रतिकूलता होती है। अनुकूल-प्रतिकूल सब बाह्य संयोग है। अन्दर आत्मा तो भिन्न है। वह प्रतिकूलता आत्माको अडचनरूप नहीं है। चाहे जैसी प्रतिकूलता हो, चाहे कुछ भी हो तो भी आत्मा अन्दरसे भिन्न रहकर शान्ति रख सकता है। स्वयं स्वतंत्र है। मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। मेरे आत्मामें वह नहीं है। अन्दर राग-द्वेष होते हैं, वह मेरा स्वभाव नहीं है तो बाह्य प्रतिकूलता मेरा स्वभाव