Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

२८६

समाधानः- उसकी एकाग्रता कब होती है? कि अन्दर उतनी आत्मा-ओरकी रुचि जागृत हो तो एकाग्र हो सकता है। स्वयंको उतनी रुचि होनी चाहिये। उपयोगमें चारों ओर दूसरे प्रकारका रस हो तो उपयोग एकाग्र नहीं होता। यह तो आत्माकी ओरका रस लगना चाहिये। प्रशस्तमें भी, दूसरा रस छूट जाय तो प्रशस्तमें भी टिकता है। तो आत्माकी ओर टिकनेके लिये तो आत्माकी ओरका रस होना चाहिये। तो उपयोग एकाग्र होता है। उतना रस अन्दर होना चाहिये, उतनी रुचि होनी चाहिये।

पुरुषार्थ करे तो होता है। बारंबार उसका अभ्यास करे तो होता है। अनादिका रस है, उसमें उसके अभ्यासके कारण वहाँ दौड जाता है। अप्रशस्तमें जाता है। प्रशस्तमें लानेके लिये भी उसका रस होना चाहिये। भगवान पर महिमा हो, गुरुकी महिमा हो, उनकी वाणीकी महिमा हो, शास्त्रकी महिमा हो तो उसमें आता है। तो आत्माकी महिमा हो तो आत्माकी ओर आता है। और पुरुषार्थ करे तो होता है। महिमा हो तो भी पुरुषार्थ करे तो होता है।

समाधानः- .. अपनी परिणतिके कारण... परद्रव्य तो जो है सो है, परद्रव्य बूरा नहीं है। बूरा तो अपने दोषकी परिणति होती है वह वास्तवमें बूरी है। चैतन्य आदरने योग्य है। जैसा है वैसा जानना, उसमें कोई राग-द्वेष नहीं है। चैतन्यतत्त्व आदरने योग्य है और विभाव है वह टालने योग्य है। वह जैसा है वैसा जानना वह राग- द्वेषका कारण नहीं है। परन्तु स्वयं राग-द्वेष (करे और) परद्रव्य पर दोष दे तो वह गलत है, वह उसकी भ्रमणा है। दोष परद्रव्यका नहीं है। अपनी विभाव परिणतिके कारण स्वयं रुककर विभाव परिणतिका दोष है। परद्रव्यका दोष नहीं है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- वह भले राग हो, परन्तु वह आदरने योग्य है। वह विकल्प जो आये वह राग है। बाकी वस्तु तो स्वयं आदरणीय है। वस्तु जो है सो है। बाकी आदरने योग्य तो अपना स्वभाव है। और विभाव टालने योग्य है। विभाव हेय है। और चैतन्य आदरने योग्य है। जैसा है वैसा ज्ञान करके उसे ग्रहण करना। उसके साथ जो राग आवे वह राग तो हेय है।

यह आदरने योग्य है, ऐसा जो विकल्प कि यह ज्ञान, दर्शन, चारित्रका जो राग हो कि आत्मा ऐसा महिमावंत है, यह ज्ञान कोई अपूर्व है, यह दर्शन चैतन्यका गुण कोई अपूर्व है, ऐसी जो महिमा आवे वह साथमें राग है। वह राग टालने योग्य है। परन्तु चैतन्य स्वयं महिमावंत है, वह तो बराबर है। रागको राग जानना और वस्तु जैसी है वैसी जाननी, उसमें कोई दोष नहीं है। जैसा है वैसा वस्तु स्वरूप ग्रहण कर। रागको राग जान। वह रागमिश्रित भाव है। बीचमें जो आता है वह राग साथमें