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आता है कि यह आदरणीय है और यह त्यागनेयोग्य है। उसकी पक्कड करे कि परद्रव्य दोषरूप ही है, वह तो राग-द्वेष है।
मुमुक्षुः- जैसा है वैसा जानना...
समाधानः- वह कोई राग-द्वेष नहीं है, जैसा है वैसा जानना। जो आदरणीय है उसका आदर करना, त्याग करने योग्य है उसका त्याग करे। त्याग-ग्रहण वस्तु स्वरूपमें नहीं है। परन्तु स्वयं विभावमें रुका है इसलिये उसे त्याग-ग्रहण आये बिना नहीं रहता। इसलिये जैसा है वैसा जानकर त्यागने योग्य त्यागे और ग्रहण करने योग्य ग्रहण करे, वह कोई राग-द्वेष नहीं है। साथमें राग आता है। उसे भेद पडता है इसलिये राग हुए बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- वैसा विकल्प उत्पन्न करना वह राग है।
समाधानः- वह राग है। यह ज्ञायक आदर करने योग्य है, वह विकल्प है वह राग है। उसकी परिणति उसके सन्मुख जाय वह राग नहीं है।
मुमुक्षुः- सम्यक सन्मुखको मालूम पडता है कि वह सम्यक सन्मुख है या नहीं?
समाधानः- स्वरूप सन्मुख हो उसे मालूम पडता है, परन्तु अन्दर स्वयंको देखनेकी दृष्टि हो तो। अपनी परिणति स्वरूप सन्मुख जाती है, वह स्वयं अन्दर जाने तो मालूम पडे। स्वरूप सन्मुख मेरी परिणति जाती है, विभाव गौण होते हैं। जाने, उसे बराबर सूक्ष्मतासे जाने तो मालूम पडता है। स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है।
मुमुक्षुः- .. आत्माका अनुभव होनेके बाद छः महिने पर्यंत पुनः अनुभव नहीं हुआ हो तो वह जीव नियमसे मिथ्यादृष्टि हो जाय, ऐसा है?
समाधानः- छः महिनेका ऐसा कोई कालका अंतर नहीं है। नहीं हो तो... उसकी दशामें अमुक कालमें होना ही चाहिये। उसकी वर्तमान परिणति भी भेदज्ञानकी रहती है। स्वानुभूति तो होती है, परन्तु वर्तमान परिणति भी भेदज्ञानकी ही रहती है। वर्तमान परिणतिमें भी यदि एकत्वबुद्धि होती हो तो उसकी दशा ही नहीं है। वर्तमानमें उसकी सहज दशा जो वर्तती दशा है, उसमें उसे भेदज्ञान रहता है और उसे अन्दर विश्वास होता है कि अमुक समयमें यह परिणति निर्विकल्प दशामें जाती है और जायेगी ही। इतना उसे विश्वास होता है। जायेगी या नहीं जायेगी, ऐसी शंका भी नहीं होती। उसकी वर्तमान दशा ही उसे प्रमाण करती हो कि यह दशा ऐसी है कि अन्दर निर्विकल्प दशा हुए बिना रहनेवाली नहीं है। उसकी वर्तमान दशा ही उसे अन्दर उतना प्रमाण (देती है), उसे अन्दर विश्वास होता है।
अन्दर वर्तमान परिणतिमें शंका पडे कि होगी या नहीं होगी? तो उसकी वर्तमान परिणतिमें ही दोष है। वर्तमान परिणति बाहर रुकती है, परन्तु यह परिणति ऐसी है