Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

२९२ यानी द्रव्यमें कोई परिणाम ही नहीं होते हैं, ऐसा द्रव्य नहीं है।

वीतराग हो जाय, केवलज्ञान हो जाय तो भी द्रव्य तो परिणामी रहता है। द्रव्य तो.. उसमें उसके अनन्त गुण परिणमन करते रहते हैं। उसका ज्ञान सादिअनन्त काल परिणमता रहता है। एक समयमें लोकालोकको जाननेवाला ज्ञान सब जानता रहता है। उसका आनन्दका गुण परिणमता रहता है। परिणामी स्वभाव तो परिणमता ही रहता है। परिणाम बिनाका द्रव्य नहीं है। तो सुखका वेदन किसे? सुखका वेदन किसे? ज्ञानका जाननेका (कार्य)। गुण स्वयं कार्य न करे तो गुण कैसा? ज्ञान जाननेका कार्य न करे तो उसे ज्ञान कैसे कहें? आनन्द आनन्दका कार्य न करे तो आनन्द कैसे कहें? चेतन चेतनका कार्य न करे तो उसे चेतन कैसे कहें?

उसके जो लक्षण हैं, उसका कार्य-उसका परिणाम न हो तो वह गुण कैसा? वह पर्याय कैसी? वह द्रव्य कैसा? बिलकुल परिणाम बिनाका द्रव्य हो तो। स्वानुभूतिकी पर्याय वह भी पर्याय है। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते मुनिराज, वह भी पर्याय है। उसकी दृष्टि द्रव्य पर है। सामान्य पर दृष्टि है, परन्तु वेदन तो पर्यायका होता है। श्रेणि चढते हैं, केवलज्ञान होता है, वह सब परिणाम हैं।

मुमुक्षुः- दृष्टिके विषय जितना ही द्रव्य अथवा तो एकान्त उतनी ही वस्तु है, ऐसा नहीं मानता।

समाधानः- अनन्त गुण और अनन्त पर्यायका सामर्थ्यवान द्रव्य है। पर्याय उसके लक्ष्यमें नहीं है, गुणभेद लक्ष्यमें नहीं है, भेद पर दृष्टि नहीं है। सामान्य पर दृष्टि है। परन्तु द्रव्य ऐसा सामर्थ्यवान है, ऐसा उसे ज्ञान होना चाहिये। दृष्टि उसके अस्तित्व पर है। अस्तित्व परन्तु कैसा अस्तित्व है? परिपूर्ण सामर्थ्यवान, अनन्त गुण एवं अनन्त पर्यायका सामर्थ्य द्रव्यमें है, कि जो द्रव्य कोई अचिंत्य है। उसके परिणाम भी अचिंत्य है और द्रव्यकी शक्तियाँ भी अचिंत्य हैं। जो तर्कमें नहीं आ सकता ऐसा उसका स्वभाव है।

अनन्त काल व्यतीत हो तो भी जो खत्म नहीं होता। अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदरूप परिणमे तो भी उसमेंसे खत्म नहीं होता। जो बढ नहीं जाता, जो कम नहीं हो जाता, ऐसा अचिंत्य सामर्थ्यवान, जो तर्कमें नहीं आता ऐसा उसका सामर्थ्य है, ऐसा द्रव्य है। .. उसके ज्ञानमें ग्रहण होता है।

मुमुक्षुः- दृष्टिका विषयभूत द्रव्य सूक्ष्म पडता है।

समाधानः- दृष्टिका विषय द्रव्य है। वह सामान्य अस्तित्वको ग्रहण करती है। अस्त्वि वस्तु चेतन है, जो सत स्वरूप, चेतनस्वरूप, ज्ञानस्वरूप ज्ञायक है उसका अस्तित्व ग्रहण करती है। परन्तु वह ज्ञायक कैसा है? कूटस्थ है ऐसा नहीं, कार्य करनेवाला ज्ञायक है। गुणरूप परिणमन करनेवाला ज्ञायक है। दृष्टि एवं ज्ञान दोनों साथ ही रहते हैं।