२९४ जो पर्यायें परिणमनेवाली होती हैं, वह परिणमती है। परन्तु पुरुषार्थ तो स्वयंको द्रव्यदृष्टि करनेका पुरुषार्थ साथमें होता है। द्रव्यदृष्टि तो तुझे ही करनी है। जैसा बनना होगा बनेगा, ऐसा करनेसे पुरुषार्थ (नहीं होता)। ऐसे कोई अपनेआप द्रव्यदृष्टष्टि नहीं हो जाती। पुरुषार्थ करे तो द्रव्यदृष्टि होती है। इसलिये क्रमबद्ध, अंतरका जो क्रमबद्ध है वह पुरुषार्थके साथ जुडा हुआ है। बाकी परद्रव्यका कर्ता तो स्वयं हो नहीं सकता। वह कर्ताबुद्धि छुडाते हैैं। तू पुरुषार्थ कर तो जो पर्यायें परिणमनेवाली हैं वैसे परिणमती है। वह तो पर्याय है, परन्तु द्रव्यदृष्टिसे कर्ताबुद्धि छुडाते हैं। गुरुदेवको यह कहना है। तू कर्ताबुद्धि छोड। परन्तु पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध जुडा हुआ है।
क्रमबद्ध ऐसा नहीं है कि उसे पुरुषार्थके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। भगवानने जैसा देखा वैसा होगा। तो भगवानने जैसा देखा होगा अर्थात भगवानने जिसका पुरुषार्थ देखा है। भगवानने पुरुषार्थ बिना अपनेआप हो जायगा ऐसा नहीं देखा है। अतः जो आत्मार्थी होता है उसकी दृष्टि तो पुरुषार्थ पर होती है। परन्तु परपदार्थ ओरकी तेरी कर्ताबुद्धि छोड दे। तू परका कुछ नहीं कर सकता, परन्तु तेरे द्रव्य पर दृष्टि करके तेरी परिणतिकी गति बदलनी वह तो पुरुषार्थकी बात है। वह बिना पुरुषार्थ होता नहीं। गुरुदेवने तो बहुत तर्क किये हैं। गुरुदेवने तो अनेक प्रकारसे उसका आशय (स्पष्ट किया है)। पुरुषार्थ तो गुरुदेव मुख्य कहते थे। गुरुदेवने ही सब समझाया है।
मुमुक्षुः- गुरुदेव उसमें साथमें ऐसा लेते हैं कि क्रमबद्ध कहनेपर जो सर्वज्ञने देखा है (वैसे होगा), तो सर्वज्ञकी सत्ताका स्वीकार है, वह कैसे?
समाधानः- सर्वज्ञको माना। जो क्रमबद्ध नहीं मानता है, वह सर्वज्ञको नहीं मानता। सर्वज्ञको नहीं माना, परन्तु स्वयं जो द्रव्यदृष्टि करता है, उसने ही सर्वज्ञको माने हैं। भगवानने जो देखा है वैसा होगा, भगवानने देखा वैसा होगा, उसका जो स्वीकार करे वह स्वयं ज्ञाता हो जाय। ऐसा कहना है। सर्वज्ञका सम्बन्ध उसके (साथ है)।
सर्वज्ञको किसने माना है? जो ज्ञाता हो जाय उसने सर्वज्ञको माना है। भगवानको मानता नहीं है, जो स्वयं (ऐसा मानता है कि) मैं कर सकता हूँ, मुझसे सब होता है। भगवानने जैसा देखा (वैसा होगा)। ज्ञाताबुद्धि-तू ज्ञायक हो जा। ज्ञायक हो जाय उसीने भगवानका स्वीकार किया है।
गुरुदेव तो द्रव्यदृष्टि परसे क्रमबद्ध कहते थे। जिसने द्रव्यदृष्टि की उसीने क्रमबद्ध माना है, दूसरे किसीने माना ही नहीं। जिसने द्रव्यदृष्टि की उसने सर्वज्ञको माना, जिसने द्रव्यदृष्टि की उसने क्रमबद्ध माना। दूसरे जो बोलते हैं उसने क्रमबद्ध माना नहीं।
मुमुक्षुः- उसका अर्थ यह हुआ न कि परद्रव्यमें तेरा पुरुषार्थ चल नहीं सकता। आत्मा अपने दर्शन, ज्ञान द्वारा पुरुषार्थ कर सकता है। स्वमें करे, परमें कर नहीं सकता।