११५
समाधानः- परमें स्वयं नहीं कर सकता है, अपना पुरुषार्थ स्वयं कर सकता है। स्वयंका पुरुषार्थ स्वयं करता है। उसमें सहजपने दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी पर्याय प्रगट होती है। स्वयं द्रव्य पर दृष्टि करे। आत्मार्थीकी पुरुषार्थ पर ही दृष्टि होती है। फिर कोई कहता है, पुरुषार्थ होनेवाला होगा तो होगा। उसे होगा ही नहीं, जिसे ऐसी भावना हो उसे।
पुरुषार्थ करनेवालेको पुरुषार्थ पर दृष्टि होती है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। मैं पुरुषार्थ करुँ। मैं द्रव्य पर दृष्टि करुँ, ऐसी उसकी भावना होती है। उसीमें क्रमबद्ध होता है। उसीमें सहज पर्यायें प्रगट होती हैं। पुरुषार्थ और सहज, दोनोंका सम्बन्ध है। सिर्फ सहजसे नहीं होता है, पुरुषार्थ साथमें सहज जुडा होता है।
मुमुक्षुः- अपने द्रव्यका पुरुषार्थ कैसे?
समाधानः- अपने द्रव्यमें पुरुषार्थ... परिणति पर ओर गयी है, राग-द्वेषका स्वामीत्व माना है, स्वयं संकल्प-विकल्प (करता है), विभाव सो मैं, विभाव मेरा स्वभाव, ऐसा माना है। द्रव्यको स्वयं पहचानता ही नहीं है। इसलिये द्रव्यको पहचाने। मैं ज्ञायक हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसे स्वयं अपने द्रव्य पर दृष्टि करे। अपने द्रव्यको पहचाने। अनादिसे द्रव्यको कहाँ पहचाना है। इसलिये द्रव्य ओर उसे दृष्टि बदलनी है।
यह चैतन्य सो मैं हूँ और यह विभाव सो मैं नहीं हूँ। यह चैतन्य शुद्धात्मा निर्विकल्प तत्त्व सो मैं हूँ। ऐसी उसकी दृढ प्रतीति, उस पर उसकी दृष्टि स्थापित करता है। पूरी परिणति पलट जाती है। दृष्टि यानी मात्र देखनेकी दृष्टि ऐसा नहीं, पूरी ज्ञायककी परिणति उसकी पलट जाती है। उसे भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो जाती है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे उसकी पूरी भेदज्ञानकी धारा हो जाती है। पूरी ज्ञायककी परिणति प्रगट हो जाती है, द्रव्य पर दृष्टि करनेसे। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें (होते हैं)। आंशिक लीनता होती है। उसकी ज्ञायककी धारा-ज्ञाताकी धारा प्रगट हो जाती है, द्रव्य पर दृष्टि करनेसे। अनादिसे द्रव्य पर दृष्टि ही कहाँ करता है।
गुुरुदेवने तो अनेक प्रकारसे चारों ओरसे अनेक जातका गुरुदेवने समझाया है। निश्चय और व्यवहार, अनेक जातका स्पष्ट करके समझाया है। गुरुदेवका तो परम उपकार है। भेदज्ञानकी धारा प्रगट होती है। उसमें उसे स्वानुभूति होती है, द्रव्य पर दृष्टि करनेसे। उसे पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। स्वयं द्रव्य ही है, उसमें दृष्टि क्या करनी? दृष्टिने द्रव्यको पहचाना कहाँ है? अनादिसे द्रव्यको पहचाना नहीं है। दृष्टि तो पर ओर है।
मुमुक्षुः- आपने दो दिन पहले कहा था कि पुरुषार्थ करनेकी भावना भी रहे और कर्तृत्व आये नहीं।
समाधानः- हाँ, पुरुषार्थकी भावना रहे उसे कर्ताबुद्धि नहीं होती। मैं कर्ता होकर