२९६ कुछ नया करता हूँ, ऐसी कर्ताबुद्धि उसे नहीं होती। पुरुषार्थकी धारा, अपनी ओर पुरुषार्थ चलता है, भावना रहती है। कर्ताबुद्धि उसे नहीं होती। उसकी परिणति गति (स्वरूपकी ओर चलती है)। जो यथार्थ सत स्वरूपको प्रगट करना चाहता है, उसमें उसे जूठा आता नहीं। उसे यथार्थता (होती है)।
मुमुक्षुः- परका अकर्ता। अपने जो स्वाभाविक भाव हैं, दर्शन, ज्ञान, चारित्र उन भावोंका कर्ता कहलाता है न?
समाधानः- हाँ, अपने स्वभावका कर्ता है। विभावका अकर्ता है।
मुमुक्षुः- आत्मामें ऐसा कोई अकर्ता नामका कोई गुण अथवा स्वभाव हो सकता है कि जो अपनी ज्ञानपर्याय न करे, दर्शनपर्याय न करे, सहज हो।
समाधानः- द्रव्य पर दृष्टि करनेसे मैं अपने स्वभावका कर्ता हूँ, ऐसा विकल्प भी नहीं होता। स्वयं एक सामान्य पर दृष्टि रखता है। उसमें कर्ता आदि किसी पर उसकी दृष्टि नहीं है। एक सामान्य तत्त्व पर उसकी दृष्टि स्थापित कर देता है। सहज स्वभावसे परिणति हो वैसे दृष्टि स्थापित करता है। परन्तु वह सर्वथा एकान्त नहीं है। स्वयं अपने स्वभावका कर्ता है।
मैं कर्ता हूँ, ऐसा भेद करके अपने स्वभावमें ऐसी दृष्टि स्थापित नहीं करता कि मेरे स्वभावका कर्ता हूँ। एक सामान्य पर दृष्टि रहती है। ऐसा भेद विकल्प नहीं रहता। परन्तु स्वयं स्वभावका कर्ता है।