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आ जाती है।
मुमुक्षुः- सच्ची जिज्ञासा है वही आज्ञाका पालन है।
समाधानः- जिज्ञासा हो उसमें साथमें आज्ञा आ जाती है। जो मार्ग गुरुदेवने बताया है, उस मार्गको अन्दर विचार करके ग्रहण करे, उसमें ही गुरुदेवकी आज्ञा है। अंतरमें ज्ञायकका द्वार छोडना नहीं और बाहरसे सच्चे देव-गुरु-शास्त्र जो मिले, उस देव-गुरु-शास्त्रकी, सच्चे देव जिनेन्द्र देव जिन्होंने पूर्ण स्वरूपकी प्राप्ति की, गुरुदेव जो साधन कर रहे हैं और शास्त्रमें जो तत्त्वकी बात आये, बाहरमें उसकी आराधनामें रहे और अन्दरमें ज्ञायककी आराधनामें रहे। गुरुदेवने जो मार्ग बताया है, उस मार्गको तू ग्रहण करता रह, यही उनकी आज्ञा है।
गुरुदेवने कहा, तू इस मार्ग पर जाना। तेरे द्रव्य-गुण-पर्याय तुझमें है, दूसरेके दूसरेमें है। दोनों तत्त्व अत्यंत भिन्न हैं। तू स्वतंत्र है, तेरे पुरुषार्थसे तू आगे जा सकता है। गुरुदेवने बहुत कहा है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस मार्गको स्वयं विचार करके उस मार्ग पर चलना वही उनकी आज्ञा है। जिज्ञासाके साथ वह आज्ञा रही है कि गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है, उस मार्गको लक्ष्यमें रखकर स्वयं उस अनुसार आगे बढे, उसमें साथमें आज्ञा आ जाती है। देव-गुरु-शास्त्र जो कहते हैं, उसका आशय ग्रहण करके आगे बढना वह आज्ञा है।
... उसमें भवका अभाव नहीं होता है। भवका अभाव तो आत्माकी रुचि करे, आत्माका स्वरूप पहचाने, भिन्न पडे। अनादिसे भिन्न ही है, परन्तु भेदज्ञान करके भिन्नता करे तो मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है, अन्यथा नहीं होता। अंतरकी रुचि लगानी चाहिये। गुरुदेवने तो बहुत स्पष्ट करके समझाया है। पूरा मार्ग स्पष्ट कर दिया है।
इस पंचमकालमें आत्माकी रुचि लगाकर आत्माका स्वरूप पहचाननेकी लगनी, जिज्ञासा लगानी। उसका वांचन, उसके विचार आदि करना चाहिये। संसारका रस कम हो जाये, आत्माकी ओरका रस बढ जाये। जबतक नहीं हो तबतक जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र... शास्त्रका चिंतवन करे, गुरु (एवं) देवकी महिमा करे। वह शुभभाव है, परन्तु शुद्धात्मा भिन्न है, उस शुद्धात्माको पहचाननेका अंतरमें प्रयत्न करे। (द्रव्य-गुण-पर्याय) आत्माके क्या है, पुदगलके क्या है, (उसका) विचार करके पहचाने, उसका स्वरूप पहचाने।
समाधानः- ... यह संसार तो निःसार है। पुण्यके योगसे यह सब मिला है, बाकी अन्दर आत्मामें जो सुख है वह अनुपम है। उसके लिये बारंबार उसका विचार करना, चिंतवन करना, शास्त्र पढने, गुरुदेवके प्रवचन पढना। पढनेसे कुछ विचार चलें। लगनी लगानी, विचार करना, बाहरमें जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र, शास्त्रका चिंतवन, देव- गुरुकी महिमा रखनी। वह सब शुभभावमें (जाता है)। बाकी तो संसारके भाव, सब