७४ विकल्प तो संसारकी जाल है। वह सब तो अशुभ विकल्प है। बाकी अन्दर उन सबसे भिन्न शुद्धात्मा है। उसे पहचाने तो भवका अभाव होता है। बाकी शुभभाव जीवने अनेक बार किये, (उससे) पुण्यबन्ध होता है, परन्तु भवका अभाव नहीं होता।
भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है, परन्तु उसे पहचाननेके लिये उसका विचार, वांचन, लगनी लगाये, जिज्ञासा लगाये तो होता है। नहीं होता तबतक करते रहना। उसकी महेनत और बारंबार उसका मंथन करते रहनेसे अन्दर आत्मा प्रगट होता है। आत्मा तो शुद्ध ही है, शक्तिमें जैसे पूर्ण चरपराई भरी है, वैसे आत्मामें सुख और शांति, ज्ञानादि अनन्त गुणसे भरा है, परन्तु उसका उसे अनुभव नहीं है। अनुभव नहीं है तो बारंबार उसका घूटन करता रहे, बारंबार विचार, उसका मंथन आदि करता रहे तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता। छोटीपीपरकी भाँति। बारंबार करते रहना, जबतक नहीं होता तबतक थकना नहीं, उसका ही विचार, वांचन, लगनी, जिज्ञासा, भावना उसकी ही करनी, थकना नहीं।
द्वार बन्ध हो तो टहेल मारते रहना, परन्तु थकना नहीं, तो भगवानके द्वार खुले, यदि स्वयंकी भावना हो तो। वैसे चैतन्य आत्मा भी भगवान है। बारंबार उसके विचार, वांचन सब करता रहे। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे बारंबार उसका मंथन, टहले मारते रहना। थकना नहीं। तो प्रगट होता है। बारंबार, जबतक नहीं होता तबतक, चाहे जितने समय तक करते रहना पडे तो करते रहना। (गुरुदेव) बारंबार दृष्टान्त देते थे, छोटीपीपरको घिसनेसे पूर्ण चरपराई प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- ... तबसे मेरे पिताजीके साथ मैं जाता था।
समाधानः- बहुत सुना है, सभीको शांति रखनी। विचारोंको बदल कर शांति रखनी। आत्माका ही करने जैसा है। गुरुदेवने बहुत कहा है। यह शरीर कहाँ आत्माका है, रोग भी आत्मामें नहीं है, वेदना आत्मामें नहीं है, उससे भिन्न आत्मा है। उसे, आत्मा मैं जाननेवाला हूँ, ये रोग होते हैं वह मेरेमें नहीं है। लेकिन उसे शरीर पर राग है इसलिये उसमें एकत्वबुद्धिसे जुड जाता है, परन्तु अन्दर शांति रखनी कि मैं तो जाननेवाला हूँ। ऐसा बारंबार विचार करना। उससे भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे कि मैं तो भिन्न हूँ। सदा ही भिन्न हूँ। बाहरके जो उदय आये वह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। उसमें शांति रखनी।
गुरुदेवने कहे हुए तत्त्वका विचार करना, आत्माका स्वरूप विचारना, देव-गुरु-शास्त्रको हृदयमें रखकर मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा विचार करना। मैं ज्ञायक आत्मा हूँ, यह रोग भिन्न है, मैं भिन्न हूँ। आकूलता अन्दर हो तो मैं तो आत्मा हूँ, यह मेरा स्वरूप नहीं है। शांति रखनी। बारंबार उसे याद करना-ज्ञायक आत्माको। शरीरमें रोग तो आता रहता