Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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समाधानः- हाँ, अंतरसे निवृत्त हो तो होता है। वह कोई मुक्ति मार्ग नहीं है। अन्दरसे आधार मिलता है कि अपने मार्ग तो नहीं भूले हैं, मार्ग तो यही है।

समाधानः- ... सुलभ ही है। करना स्वयंको है। स्वयं करता नहीं है इसलिये दुर्लभ हो गया है। स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता है। अपने समीप ही है, दूर नहीं है। आत्मा स्वयं ही है और अपनेमेंसे ही प्रगट होनेवाला है, बाहर कहीं लेने जाना नहीं पडता कि बाहरसे आये तो हो, बाहरका इंतझार करना पडे ऐसा तो नहीं है। अपने पास और अपने स्वभावमें ही पडा है। उस पर दृष्टि करे, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करे तो उसीमेंसे प्रगट हो सके ऐसा है। परन्तु स्वयं करता नहीं है। पुरुषार्थ नहीं करता है।

विभावकी एकत्वबुद्धि तोडकर स्वयं अपनेमें जाय, ज्ञायकताको अन्दरसे स्वयं ग्रहण करके उस रूप परिणमन करे तो स्वयं ही है। अपनेमेंसे प्रगट हो सके ऐसा है। द्रव्य तो अनादिअनन्त शक्तिमें सब भरा है, परन्तु प्रगट स्वयंको करना है। बारंबार उसीका प्रयास, उसीका मनन करता रहे। छाछको बिलोनेसे, मक्खनको बिलोनेसे मक्खन ऊपर आता है। स्वयं बारंबार उस भेदज्ञानका अभ्यास करता रहे। स्वयं भिन्न हुए रहे नहीं, परन्तु स्वयं करता नहीं है।

... बाहर सब देखनेका उसे (कुतूहल रहता है)। जबतक वह नहीं होता, तबतक उसकी महिमा, उसके विचार, मनन सब करता रहे। अंतरमें उग्रता किये बिना होता नहीं। अनादिका अभ्यास (है)। बाहरमें एकत्वबुद्धिको ऐसी दृढ की है, उसे तोडकर अंतरमें जाना उसके लिये स्वयं उग्रता (नहीं करता है)। बारंबार अभ्यास करके भी उग्रता नहीं करता है, कोई करे अंतर्मुहूर्तमें उग्रता करता है और कोई करे तो अभ्यास करते-करते उसे उग्रता (होती है)। लेकिन उग्रता तो स्वयंको ही करनी है।

आनन्दका सागर स्वयं है। स्वयंको ही करना पडता है। अपनी जो मान्यताएँ हैं, वह मान्यताएँ जूठी है और सत्य दूसरा है। उसके सामने स्वयं ही अपनी मान्यताको तोडकर अंतरमें स्वंयको पलटना है। बाहरसे संप्रदायका फेरफार (हो गया)। गुरुदेवने तो सच्चा मार्ग प्रकाशित करके संप्रदायका फेरफार करके स्वयं मार्ग प्रकाशित किया। गुरुदेवने किया ऐसा ग्रहण किया, लेकिन अंतरमेंसे पलटकर अपने हाथकी बात है। बाहरसे संप्रदायका बन्धन तोडा। अंतरमें विकल्पकी एकत्वबुद्धिका बन्धन स्वयंने ही खडा किया है उसे तोडना अपने हाथकी बात है। वह करनेका है।

... जो भवस्थिति होगी वैसा होगा। आत्मार्थीको ऐसा अभिप्राय नहीं होता। मैं करुँ तो होता है। मेरे पुरुषार्थकी क्षति है। मार्ग बताया। अंतरमें तो स्वयंको ही करना बाकी रहता है।

मुमुक्षुः- उग्रता अन्दरमें ही करनी है। उसका कुछ बाहरमें नहीं दिखता।