Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

३०६ भी उसके लक्षण जैसा है वैसा, उसका अंश-अंशीका भेद, उसकी पर्यायें परिणमन क्षण-क्षणमें आत्माके गुणके जो तरंग होते हैं, वह सब जैसा है वैसा अदभुत और आश्चर्यकारी उसे ज्ञानमें ज्ञात होता है। उसमेंसे वह निकल नहीं जाते। अभेद यानी उसमें गुण ही नहीं है और पर्यायें नहीं हैं, ऐसा नहीं है।

सिद्ध भगवानमें सब रहता है। अनन्त गुण और पर्याय। सिद्ध भगवान वीतराग हो गये तो भी उसमें अनन्त गुण, अनन्त पर्याय (जो हैं) उन सबको ज्ञान जानता है। स्वानुभूतिमें भी, उसका ज्ञान पूर्ण नहीं है, परन्तु उसकी स्वानुभूतिमें जो आता है, उसकी अनन्त अगाधता जो है, उसके गुण, पर्याय जैसे हैं वैसा ज्ञात होता है। आकुलतारूप- विकल्परूप नहीं, परन्तु निर्विकल्परूपसे स्वानुभूतिमें जैसा है वैसा ज्ञात होता है। ऐसा वस्तुका स्वरूप ही है।

मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवको कोटि-कोटि वन्दन। पूज्य बहिनश्री! एक प्रश्न है। सम्यग्दृष्टि जीवको ज्ञायककी डोर हाथमें आ जानेके बाद उपयोग बाहर जाय तो सम्यकत्वको कोई हानी पहुँचती है? उपयोग बाहरमें हो तब भी क्या निरंतर शान्तिका वेदन होता है? निर्विकल्प अवस्था नहीं है, उसका कोई खेद होता है? उपयोगकी ऐसी अटपटी बात आप समझानेकी कृपा करें।

समाधानः- सम्यग्दृष्टिको जो ज्ञायकदशा प्रगट हुयी है, वह ज्ञायक उसे ग्रहण हुआ है। निरंतर ज्ञायककी दशा ही वर्तती है। वह ज्ञायककी दशा जिनेन्द्र देवके उपदेशसे और गुरुके उपदेशके निमित्तसे स्वयंके पुरुषार्थसे जो प्रगट होती है, वह ज्ञायककी दशा उसे निरंतर वर्तती है। ज्ञायक जिसे ग्रहण हुआ, सो वह ग्रहण हो गया। निरंतर उसे ज्ञायककी दशा है। उपयोग बाहर जाय तो भी उसे ज्ञायक छूटता नहीं। उपयोग अन्दर जाय तो भी उसे ज्ञायक तो छूटता ही नहीं। अन्दर जाय तब तो ज्ञायकका परिणमन है। बाहर आये, उपयोग बाहर आये तो भी ज्ञायक तो ग्रहणरूप ही रहता है।

उसकी दृष्टिको कोई दिक्कत, उसकी ज्ञायकताको दिक्कत नहीं आती। उसकी अस्थिरताको दिक्कत आती है। उसकी स्थिर परिणति, अभी स्थिरता पूर्ण नहीं है इसलिये अस्थिरताका दोष है। परन्तु उसे ज्ञायककी जो दृष्टि प्रगट हुयी, उस दृष्टिमें उसे थोडा भी दोष नहीं लगता। और शान्तिका वेदन होता है। जैसी एकत्वबुद्धिकी आकुलता थी, वैसी आकुलता नहीं है। उसकी अस्थिरताकी आकुलताकी अलग बात है। बाकी अंतरमें उसे शान्तिका वेदन होता है, समाधिका वेदन है, उसे सुखका वेदन होता है। निर्विकल्प दशाका जो आनन्द होता है, वह आनन्द तो अलग ही है। वह तो अनुपम, कोई अपूर्व, कोई अलग ही जातका है, जिसे जगतकी कोई उपमा लागू नहीं पडती। वह आनन्दकी दशा और चैतन्यकी दशा अलग होती है। तो भी उसे सविकल्प दशामें जो शान्तिका