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वेदन होता है, वह ज्ञायककी शान्ति एवं समाधिका वेदन होता ही रहता है। उपयोग बाहर जाय तो भी उसे एकत्वबुद्धि नहीं होती। ज्ञायकता, प्रति समय उसे ज्ञायकता मौजूद ही रहती है।
जो ज्ञायक ग्रहण हुआ वह उसे छूटता नहीं है। जैसे घरमें खडा हुआ मनुष्य अपने घरको छोडे बिना बाहर बात करे, घरमें खडे रहकर बाहर बातचीत करे परन्तु अपना घर छूटता नहीं है। घर छोडकर बाहर जाता ही नहीं। जो चैतन्यकी डोर हाथमें आयी, वह चैतन्यकी डोर उसे छूटती नहीं। उसकी परिणति बाहर ज्यादा नहीं जाती है। उसे मर्यादा रहती है। मर्यादाके बाहर, उपयोग मर्यादासे बाहर जाता ही नहीं है।
उसकी भेदज्ञानकी धारा निरंतर वर्तती है। मैं चैतन्य और यह विभाव है। विभावमें एकमेक होकर बाहर जाता ही नहीं। चैतन्यका घर वह छोडता ही नहीं। जब उपयोग अंतरमें जाय वह उसके हाथमें ही है। उसका मार्ग सरल हो गया है। जब उसे अपनी ओर परिणति आती है, तो निर्विकल्प दशा भी उसे अपने हाथमें है। परन्तु अस्थिरताके कारण उसकी भूमिका अनुसार उसे निर्विकल्प दशा होती है। घर तो उसका छूटता ही नहीं। चाहे जैसे प्रसंगमें ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायकका घर उसे छूटता नहीं। चाहे जैसा विकल्प आये या चाहे जैसे बाह्य प्रसंग, उदय आवे तो भी उसे ज्ञायकका ग्रहण, ज्ञायक तो छूटता ही नहीं।
घरमें खडा हुआ मनुष्य बाहर बातचीत करे या बाहरके कोई प्रसंगमें जाय तो भी वह घर छोडकर बाहर नहीं जाता है। घरमें खडा हुआ मनुष्य जैसे बातचीत, लेनदेन करता है, वैसे वह घरमें खडे-खडे निरंतर घरमें ही-ज्ञायकके घरमें ही खडा है। मात्र उस घरमें लीनताकी, अस्थिरताकी क्षति है। इसलिये उसे किसी भी प्रकारका दृष्टिका दोष नहीं लगता है। उसे ज्ञायकतामें दोष नहीं आता है। परन्तु अस्थिरताका दोष उसे है। अभी अल्पता है। अल्पताके कारण वह समझता है कि निर्विकल्प दशा मेरी भूमिका अनुसार होती है। बाहरकी जो विकल्पात्मक दशा, जो अस्थिरता है, अस्थिरता (छूटकर) यदि लीनता अधिक हो तो निर्विकल्प दशा प्रगट होती है। अर्थात जैसा अपना पुरुषार्थ उत्पन्न होता है, वैसे स्वरूपमें जम जाता है। लेकिन उसे वैसा एकत्वबुद्धिका खेद नहीं है। उसे भावना होती है, कहाँ केवलज्ञानीकी दशा, कहाँ मुनिओंकी दशा और कहाँ यह अधूरी दशा। बाहर जुडना हो जाता है। कहाँ चैतन्यकी अपूर्व आनन्दकी दशा, वह छूटकर बाहर जाना होता है। ऐसी भावना उसे होती है। उसे पुरुषार्थकी भावना होती है। परन्तु वह हठ नहीं करता। अपनी सहज परिणति (चलती है), पुरुषार्थ करता है, प्रमाद नहीं करता है। पुरुषार्थकी डोर हाथमें ही है। उपयोगको ज्यादा बाहर नहीं जाने देता। स्वरूपकी ओर डोरको खीँचता ही रहता है। ज्यादा बाहर जाये तो भी