३०८ ज्ञायकका जो ग्रहण हुआ, उसी ओर अपनी डोर खीँचता ही रहता है।
चाहे जैसे बाह्य प्रसंग आवे, उसे बाह्य उदय, नोकर्मके उदय या भावकर्मके उदय, वह मर्यादाके बाहर नहीं जाता। उसे किसी प्रकारका भय नहीं है। कोई वेदनाका भय, कोई अकस्मात भय, ऐसा कोई भय उसे नहीं लगता है। मेरी ज्ञायककी परिणति मौजूद है, मुझे कोई नुकसान कर सके ऐसा नहीं है। अन्दर भावकर्ममें भी उसकी जो भूमिका है, उस प्रकारके विकल्प आते हैं। उसे मर्यादा छोडकर कोई विकल्प नहीं है। वह मर्यादाके बाहर नहीं जाता। उसमें उसे उस प्रकारका भय नहीं है कि मेरा ज्ञायक छूट जायगा। क्योंकि उसके पुरुषार्थकी डोर हाथमें है।
ज्ञायकका घर ग्रहण किया सो किया, ज्ञायकरूप ही उसकी परिणति हो गयी है। उसकी दशा शरीरके साथ या विकल्पके साथ कहीं एकत्व नहीं होती। ज्ञायक, ज्ञायक और ज्ञायक, ज्ञायकमय ही उसकी परिणति रहती है। किसी प्रकारका उसे खेद, एकत्वबुद्धिका खेद नहीं होता। बाकी वीतराग होनेकी, मुनि बननेकी भावना रहती है। परन्तु उसकी दृष्टिको दोष नहीं लगता है, ज्ञायकतामें दोष नहीं लगता है।
मुमुक्षुः- लडाईमें भी ऐसी ही स्थिति होती है? समाधानः- हाँ, लडाईके वक्त भी उसकी ज्ञायकता मौजूद है। ऐसे बाह्य प्रसंगमें खडा है कि राजका राग छूटता नहीं है, इसलिये इस लडाईमें जुडना पडता है। तो भी न्यायकी रीतसे लडाईके प्रसंगमें जुडता है। लेकिन ऐसा कहता है कि, अरे..! यह राजका राग छूटता नहीं है, इसलिये इसमें खडा हूँ। परन्तु ज्ञायकता छूटती नहीं। उसके राग-द्वेषके विकल्प मर्यादा बाहर जाते नहीं। उसकी परिणति वह स्वयं जानता है और जो उसे समझे वह जान सकता है। बाकी बाहरसे जो गृहस्थाश्रममें रहते हो, उसकी परिणति पहचाननी मुश्किल पडता है। क्योंकि चक्रवर्तीका राज हो, लडाईके प्रसंग हो, उसमें उसकी परिणति पहचाननी मुश्किल पडता है। परन्तु उसकी परिणति अंतरसे भिन्न ही रहती है।