मुमुक्षुः- छः द्रव्य, पंचास्तिकाय, नव तत्त्व, हेय-ज्ञेय-उपादेय तत्त्व, द्रव्य-गुण- पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य इत्यादिका ज्ञान सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिये जानना प्रयोजनभूत है? अथवा एक ध्रुव जीव स्वभावको जाननेसे मुक्ति मार्ग पर जा सकते हैं?
समाधानः- ज्यादा शास्त्रज्ञान हो तो जाननेमें आये ऐसा नहीं है। मूल प्रयोजनभूत तत्त्व जाने। ध्रुव और द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, आत्मा, उसके गुण-पर्याय, स्व-परका भेदज्ञान जो प्रयोजनभूत है कि जो मोक्षमार्गमें प्रगट होता है, उसे प्रयोजनभूत हो उतना जाने तो भी मोक्षमार्ग प्रगट होता है। उसमें ज्यादा जाने तो होता है, ऐसा नहीं है। परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्व तो जाने। शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे, परन्तु उन्हें यह दाल भिन्न और छिलका भिन्न, बाई धो रही थी उसमेंसे दाल भिन्न और छिलका भिन्न। वैसे मेरा आत्मा भिन्न और विभाव भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान करे। स्व-परका भेदज्ञान करके अंतरमें लीन हो गये। परन्तु स्व-परका भेदविज्ञानमें मैं यह द्रव्य हूँ और यह विभाव है। मैं अनादिअनन्त शुद्धात्मा हूँ। और यह पर्याय है, उस पर्यायमें विभाव होता है। लेकिन वह मेरा स्वभाव नहीं है।
स्वभाव-विभावका भेदज्ञान करके अंतरमें ऊतर गये। उसमें सब आ जाता है। जीवतत्त्व, आस्रव, संवर, निर्जरा सब। आंशिक साधकदशा हुयी। विशेष पुरुषार्थ करे तो निर्जरा होती है और पूर्णता होनेसे मोक्ष होता है। इस प्रकार उसकी परिणतिमें ही सब आ जाता है।
तिर्यंच कुछ जानते नहीं, तो तिर्यंचको शब्द नहीं आते, परन्तु स्व-परका भेदविज्ञान होता है कि मैं यह आत्मा हूँ और यह विभाव है। स्वभाव-विभावका भेदज्ञान हो, उसमें मैं यह चैतन्य स्वभाव, ज्ञायक स्वभाव मेरा आत्मा, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। और वह मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। उसे भावमें सब आ जाता है। भेदविज्ञानमें। नाम नहीं आते हैं।
मैं यह ज्ञायक हूँ और यह विभावकी परिणति मेरे स्वभावमें नहीं है। ऐसे भेदविज्ञान करके ज्ञायकको ग्रहण करता है। और उस ज्ञायककी ग्रहणतामें आगे बढे, आगे जानेका पुरुषार्थ, ज्ञायककी दृष्टिको दृढ रखनेका पुरुषार्थ, संवर, अमुक स्वरूपाचरण चारित्र सब