३१० उसमें आ जाता है। नव तत्त्वका सब उसमें आ जाता है। परन्तु उसे नाम नहीं आते हैं। परन्तु स्व-परका भेदज्ञान हो, उसमें नव तत्त्व उसकी साधकदशामें सब आ जाता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र। यह दर्शन एवं ज्ञान, ऐसी स्वयंकी प्रतीत की, मैं यह चैतन्य ऐसे अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि गयी। और यह पर। विभाव पर और मैं स्व। उसमें ज्ञान स्व-परको जाने यह आ जाता है।
अपनी ओर लीनता करता है। उसमें आंशिक स्वरूपाचरण चारित्र आता है। इसलिये उसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र (आ गया)। उसमें विशेष लीनताका प्रयत्न भी करता है। अतः उसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेद भी उसमें आ जाते हैं। उसे नाम नहीं आते। कितने ही तिर्यंच पाँचवें गुणस्थानको प्रगट करते हैं। इसलिये उसकी विशेष लीनताको भी प्रगट करते हैं। उसमें चारित्रकी दशा (आ जाती है)। दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेद भी आ जाते हैं। अतः भेद क्या, अभेद क्या, साध्य-साधकका जो पंथ है वह उसे बिना नाम भी उसमें आ जाता है।
इसलिये अमुक प्रयोजनभूत ज्ञान होना चाहिये। ध्रुवको जाने, ध्रुवको यथार्थ जाना कब कहनें आये? कि ध्रुवको यथार्थ जाने उसके साथ उसके सब पहलू आ जाय, तो उसने यथार्थ ध्रुवको जाना है। मैं ज्ञायक ध्रुव हूँ और यह विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसे उसके प्रयोजनभूत पहलू आ जाने चाहिये। अकेला ध्रुव यानी उस ध्रुवमें शुष्कतासे अकेला ध्रुव (आता हो कि) मेरेमें कुछ है ही नहीं। नहीं है यानी उसकी पर्यायमें भी नहीं है और पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, उसका कोई विवेक न हो तो उसने ध्रुवको यथार्थ ग्रहण नहीं किया है। ध्रुवमें सब पहलू आ जाने चाहिये।
ध्रुव, एक ज्ञायक ध्रुवमें सब आ जाता है। परन्तु वह यथार्थपने कब ग्रहण होता है? कि उसमें सब आ जाना चाहिये। तो यथार्थ ग्रहण किया है। दृष्टि, मैं ज्ञायक हूँ ऐसी दृष्टि सम्यक कब कही जाय? कि उसके साथ ज्ञान भी सम्यक (होता है)। ज्ञान जो विवेक करता है वह ज्ञानका विवेक और दृष्टि, दोनों सम्यक हो तो उसे सम्यक कहते हैं। परन्तु ज्ञान सम्यक नहीं हो तो दृष्टि सम्यक नहीं होती। और दृष्टि सम्यक न हो तो ज्ञान भी सम्यक नहीं होता। इसलिये उसमें सम्यक हो तो एक ध्रुवको ग्रहण करे तो भी उसमें सब आ जाता है। परन्तु उसमें संक्षेपमें स्व-परका भेदज्ञान, द्रव्यदृष्टिपूर्वकका स्व-परका भेदज्ञान (होता है)। परन्तु वह भेदविज्ञान अकेला नहीं होता।
भेदज्ञान किसे कहते हैं? कि द्रव्यदृष्टिपूर्वक हो तो ही भेदज्ञान (कहलाता है)। भेद किससे करे? स्वयं स्वयंको ग्रहण करे तो भेद पडे। स्वयंको ग्रहण किये बिना भेद होगा कैसे? मैं यह चैतन्य हूँ और यह नहीं हूँ, ऐसे स्वयंको ग्रहण किये बिना भेद होगा ही कैसे? यथार्थ भेदविज्ञान होता है उसमें द्रव्यदृष्टि भी आ जाती है।