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जो भगवानको जाने वह स्वयंको जानता है। ऐसा सम्बन्ध है। भगवानके द्रव्य- गुण-पर्यायको जाने, वह स्वयंके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है। स्वयंको द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने वह भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। लेकिन द्रव्य-गुण-पर्यायमें सब संक्षेपमें आ जाता है।
अनादि कालसे मार्ग नहीं जाना है, उसमें निमित्त-उपादानका ऐसा सम्बन्ध है कि पहले एक बार भगवानकी वाणी अथवा कोई गुरुकी वाणी प्रत्यक्षपने मिल तब उसे अंतरमें अपूर्वता लगती है। करता है स्वयंसे, परन्तु उसमें ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध रहा है।
इस प्रकार एक ध्रुव ज्ञायकमें आ जाता है, परन्तु वह कब? कि सब पहलू, प्रयोजनभूत पहलू आ जाने चाहिये। पहलू आ जाते हैं। अकेला ध्रुव, रुखा ध्रुव हो जाय तो वह यथार्थ नहीं है।
मुमुक्षुः- सब पहलू जाने बिना सीधा ध्रुव पर जाया भी नहीं जाता।
समाधानः- ऐसे सीधा नहीं जा सकता। पहलू भी, ज्यादा ज्ञान हो अथवा ज्यादा शास्त्र जाने, जाने तो अधिक लाभका कारण है, फिर भी न जाने तो संक्षेपमें स्व- पर भेदविज्ञानको जाने तो भी उसमें आ जाता है।
मुमुक्षुः- प्रथम ध्रुव स्वभाव पर दृष्टि करनी, उसके बाद पहलू जानना, ऐसा कुछ नहीं?
समाधानः- लेकिन वह प्रथम ध्रुव पर जाय, उसे सब पहलू आ जाते हैं। लेकिन ध्रुवको जाना नहीं है, अन्दर विचारसे नक्की किये बिना, ज्ञानका व्यवहार बीचमें आये बिना नहीं रहता। ज्ञानसे विचार करे, मैं कौन? पर कौन? ऐसे विचार किये बिना ज्ञानसे विवेक किये बिना वह आगे नहीं बढ सकता। मैं ध्रुव ही हूँ, ऐसा विचार किया, ज्ञानसे नक्की किया तो भी बीचमें ज्ञान तो आ ही जाता है। दृष्टि एवं ज्ञान दोनों साथमें ही रहे हैं। दृष्टि रखूँ, ज्ञानको निकाल दूँ तो ऐसे नहीं निकलेगा। ज्ञानको निकाल दूँ तो अकेली दृष्टि नहीं रहती।
आत्मा अनन्त गुणसे भरा, अनन्त धमासे भरा है। उसमेंसे एकको ग्रहण करुँ, एकको निकाल दो तो वस्तुको साध नहीं सकते। उसमें दोनों प्रकारका लक्ष्य रहना चाहिये।
मुमुक्षुः- (दृष्टि) त्रिकाली द्रव्यके सिवा किसीको स्वीकारती नहीं। दृष्टि पर्याय है और पर्यायमें तो राग-द्वेष होते हैं।
समाधानः- दृष्टि पर्याय है, परन्तु वह ग्रहण करती है अखण्डको। दृष्टिकी पर्यायमें राग-द्वेष होते हैं, ऐसा नहीं है। दृष्टिकी पर्यायमें राग (नहीं होता है)। पर्याय ग्रहण करती है अखण्ड द्रव्यको। दृष्टि पर्याय है, परन्तु उसका विषय पूर्ण द्रव्य है। वह द्रव्यको