Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

३१२ ग्रहण करती है। शाश्वत द्रव्यको ग्रहण करती है। राग-द्वेष तो विभाव पर्याय होती है उसमें राग-द्वेष होते हैं। दृष्टिकी पर्यायमें राग-द्वेष नहीं होते हैं। दृष्टिकी पर्याय भिन्न है और यह विभावपर्याय होती है वह भिन्न पर्याय है। दृष्टिकी पर्याय तो निर्मल है। चैतन्य पर दृष्टि गयी वह पर्याय निर्मल है। वह तो अखण्ड ध्रुव ज्ञायकको ग्रहण करती है।

मुमुक्षुः- एक प्रश्न है कि सम्यग्दर्शनमें जैसी भेदज्ञानकी धारा वर्तती है, उसी मार्गसे केवलज्ञान होता है? और केवलज्ञानका स्वरूप क्या है, यह समझानेकी कृपा कीजिये।

समाधानः- जो मार्ग सम्यग्दृष्टिका है, जो भेदज्ञान प्रगट हुआ, वही मार्ग आखिर तक रहता है। पहले जो जिज्ञासामें भावना करके, प्रयत्न करके, पुरुषार्थ करके जो सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ वह उसे अनादिकालसे जो दुर्लभ था, उसे पुरुषार्थ करके (प्रगट किया)। स्वभाव तो सुलभ है, परन्तु उसे अनादिकालसे एकत्वबुद्धिके कारण दुर्लभ हो गया था। वह जिसने पुरुषार्थकी भावना और पुरुषार्थ ज्ञायक ओरका बारंबार अभ्यास करके और देव-गुरु-शास्त्रके कोई अपूर्व निमित्तसे, देव-गुरु-शास्त्रका निमित्त तो कोई अपूर्व है, उससे स्वयं पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ और जो ज्ञायकको ग्रहण किया, वह मार्ग जो है वही मार्ग आखिर तक है। बादमें उसे मार्ग सहज और सुगम हो जाता है। ऐसा दुर्घट नहीं है।

जो ज्ञायक ग्रहण हुआ, वह ज्ञायक ग्रहण हुआ उसमें लीनताकी कमी है। लीनता कम है। बाकी जो ज्ञायक ग्रहण किया वही ज्ञायक, वह ज्ञायक जो सम्यग्दर्शनमें है, वही ज्ञायक मुनिदशामें है, वही ज्ञायक, पूर्ण दशामें भी वही ज्ञायक है। ज्ञायक कोई दूसरा नहीं है। ज्ञायक जो ग्रहण किया, ज्ञायककी परिणति जो दृष्टिमें आयी वही ज्ञायक, वहीका वही है। परन्तु उसमें उसकी परिणतिकी लीनताकी कमी है, वह लीनता बढाता जाता है। शुद्धात्मप्रवृत्तिलक्षण, जो शुद्धात्माकी परिणति प्रगट की वही मुक्तिका मार्ग है। जो शुद्धात्माको ग्रहण किया, सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रममें है उसे लीनताकी (कमी है), जैसे मुनि लीन होते हैं, उतने वे लीन नहीं सकते हैं। सम्यग्दृष्टि अनेक प्रकारके विकल्प, अनेक प्रकारकी प्रवृत्तिमें पडे होते हैं और मार्ग तो एक ही है।

मुनिदशामें, जो मार्ग सम्यग्दर्शनमें प्रगट हुआ वही मार्ग मुनिदशामें है। मुनि बारंबार स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। जो ज्ञायक ग्रहण किया, जो चैतन्यका घर ग्रहण किया था, उस घरमें बारंबार लीन हो जाते हैं, समा जाते हैं। और सम्यग्दृष्टिने ज्ञायकको ग्रहण किया है, बारंबार लीन नहीं जाते हैं, बाहर ज्यादा रहते हैं। मुनि बारंबार स्वरूपमें लीन हो जाते हैं, जम जाते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। बारंबार स्वरूपमेंसे उन्हें बाहर आना भी मुश्किल पडता है। एक अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं