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और फिरसे अन्दर चले जाते हैं। ऐसी दशा मुनिओंको प्रगट होती है।
मार्ग तो एक ही है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। केवलज्ञान भी उसी मार्गसे प्रगट होता है। मार्ग सरल है। उसे मार्ग सहज और सुगम हो गया है। श्रमणो, जिनो, तीर्थंकरो आ रीते सेवी मार्गने, सिद्धि वर्या ... निर्वाणनाथ.. बस, इसी मार्गसे मोक्ष है। आखिर तक एक ही मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। केवलज्ञान होता है, उस केवलज्ञानकी तो क्या बात करनी। जैसा चैतन्यद्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत है, ऐसा चैतन्यद्रव्य उसे परिणतिरूपमें प्रगट हो गया। जो चैतन्यद्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत, उसके अनन्त गुण परिणमनरूप (हो गये), जो शक्तिमें थे, कितने ही गुण शक्तिमें थे वह सब प्रगट हो गये। सब खिल गये। इसलिये जैसा चैतन्यद्रव्य था, वैसी उसकी सब पर्यायें खील गयी।
केवलज्ञान एक समयमें लोकालोकको (जानता है)। वह ज्ञानसागर, स्वयं अपने स्वरूपमें लीन हो गये हैं। ज्ञायकमें लीन हो गये, आनन्दसागरमें लीन हो गये। अनन्त गुण खील गये। परन्तु उस ज्ञानकी दिशा स्वरूप ओर हो गयी। पूर्ण दिशा। और सम्यग्दृष्टिको अमुक प्रकारसे ज्ञायक सन्मुख (दिशा हो गयी है)। ये तो पूर्ण स्वरूप सन्मुख ही लीन हो गये। लीन हो गये बादमें सहजपने क्षयोपशम, ज्ञान जो क्षयोपशरूप था, अंतर्मुहूर्तमें काम करता था, वह केवलज्ञानीका ज्ञान एक समयमें बिना विचार किये, ज्ञेयको जाननेकी इच्छा बिना, उसे इच्छा भी नहीं, निरिच्छिकपने ज्ञानकी ऐसी शक्ति है, ज्ञान ऐसा सर्वज्ञ स्वभाव आत्माका एक समयमें पूरे लोकालोकको (जानता है)।
अनन्त द्रव्यका भूतकाल, वर्तमान, भविष्य ऐसे अनन्त-अनन्त द्रव्योंके गुण-पर्यायोंको उसके भिन्न-भिन्न अनन्त काल सब एक समयमें उसके ज्ञानमें आ जाता है। फिर भी अणुरेणवत है। उसे बोझ नहीं होता। ज्ञानमें अणु कैसे पडा हो, उसकी भाँति। स्वयं अपनेमें डूबे हुए रहते हैं। ऐसा स्वपरप्रकाशक ज्ञान उसे खील जाता है। वह केवलज्ञान। उन्हें इच्छा भी नहीं है। स्वपरप्रकाशकज्ञानमें... पहले नाश नहीं हो जाता है, शक्तिमें होता है, वह सब प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! प्रश्न है कि आप वचनामृतमें फरमाते हो कि शुद्ध द्रव्य स्वभावकी दृष्टि करके पर्यायकी अशुद्धताको ख्यालमें रखकर पुरुषार्थ करना। तो अशुद्धताका पर्यायमें अनादिसे पक्ष तो किया ही है, तो आप उसका ख्याल न छूट जाय, ऐसा क्यों फरमाते हो?
समाधानः- वह तो अनादिकालसे जो किया है वह तो पक्ष किया है कि मैं तो अशुद्ध ही हूँ। द्रव्यको भूल गया है। और जो अशुद्धताकी पर्याय है, अशुद्धताकी पर्याय कि मैं अशुद्ध हो गया, रागी हो गया, द्वेषी हो गया, आत्मा तो कहीं दिखाई नहीं देता। इसलिये द्रव्य स्वरूपको भूल गया और एकान्त जो पर्याय परिणमती है,