मुमुक्षुः- करुणामूर्ति पूज्य भगवती माताको कोटि-कोटि वन्दन! बहिनश्री! एक प्रश्न है कि जीवका ज्ञान लक्षण जाननेसे लक्ष्य ऐसा आत्मा प्रसिद्ध होता है, ऐसा आगमवचन है। तो साथमें इन्द्रिय निग्रह, वैराग्यभाव, संसार प्रति विरक्ति इत्यादि भावोंकी आवश्यकता है या नहीं?
समाधानः- ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। ज्ञायक तो ज्ञानलक्षणसे ही प्रसिद्ध होता है। शास्त्रमें आता है और गुरुदेव भी बारंबार कहते थे कि ज्ञानलक्षण आत्माका असाधारण लक्षण है। उससे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। परन्तु वह ज्ञायकको ग्रहण करता है, तो विरक्तिके बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायकको ग्रहण करे वहाँ विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। इसलिये उसे ग्रहण करनेका मुख्य उपाय ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक ग्रहण होता है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायककी प्रसिद्धि होती है।
वैराग्य बीचमें आये बिना, विभावसे भिन्न होकर ज्ञायकको ग्रहण करने जाय तो उसे वैराग्य आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। ज्ञायककी महिमा आये बिना, ज्ञायकका लक्षण जाने बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता है। विभावसे विरक्त हो, संसारसे विरक्त हो तो ही ज्ञायक ग्रहण होता है। ऐसा उसे सम्बन्ध है। ज्ञानलक्षणसे ज्ञायकको ग्रहण करे, उसमें विरक्ति आये (बिना नहीं रहती)। सचमुचमें ग्रहण करे तो विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। कोई बोलनेमात्र अथवा शुष्कतासे ग्रहण करे उसकी बात नहीं है। शुष्कतासे वैराग्य नहीं हो और ज्ञायक ग्रहण हो गया, ऐसा मान ले तो यथार्थ नहीं है।
आचार्यदेव तो यथार्थ बात करते हैैं कि ज्ञानलक्षणसे ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। आत्माका असाधारण लक्षण ज्ञानलक्षण है। ज्ञानलक्षणसे ही ज्ञायक प्रसिद्ध होता है। परन्तु विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं। वह बीचमें आता ही है। जिसे ज्ञायक ग्रहण करना हो उसमें विरक्ति बीचमें आती ही है। बन्धो तणो स्वभाव जाणी, आत्माका स्वभाव जानकर बन्धसे विरक्त हो तो कर्ममोक्ष होता है। इस तरह जैसे चारित्रदशामें लीनतामें भी विरक्ति आती है, वैसे पहले ज्ञायक ग्रहण करनेमें भी विरक्ति होती है।