३१६ चारित्रमें विशेष विरक्ति होती है। यह भी जो अन्दर विभावसे विरक्त होता है, वह विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं।
सम्यग्दर्शनमें अमुक अंशमें विरक्ति है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय छूट जाता है। अतः विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। संसार प्रति उदासीनता, शुभाशुभ भावोंसे, सबसे विभावसे विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण होता ही नहीं, ऐसा उसे सम्बन्ध होता है। परन्तु मूल लक्षण ज्ञायक ग्रहण करनेमें ज्ञानलक्षणसे ग्रहण होता है। वह मात्र वैराग्य करता रहे और हेतु ज्ञायकको ग्रहण करनेका न रखे तो ज्ञायक ग्रहण नहीं होता है।
वैराग्य उसने अनन्त कालमें बहुत बार किया, परन्तु ज्ञायकको ग्रहण करनेका लक्ष्य नहीं था तो ज्ञायक ग्रहण नहीं हुआ। वैराग्यके साथ ज्ञायकको ग्रहण करनेका हेतु होना चाहिये। हेतु हो तो वह ज्ञानलक्षणसे, ज्ञायक तो ज्ञानलक्षणसे ग्रहण होता है। परन्तु उसके साथ वैराग्य आदि सब होता है। यथार्थ ज्ञायक कब ग्रहण होता है? विभावसे विरक्ति हो तो। सर्वथा विरक्ति बादमें होती है। परन्तु आंशिक विरक्ति और प्रतीतमें तो आ जाता है। विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण ही नहीं होता। ऐसा उसे सम्बन्ध है।
जहाँ ज्ञायक ग्रहण हुआ तो उसके साथ विरक्ति, ज्ञान, ज्ञायककी महिमा वह सब साथमें आ ही जाता है। और सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। उसके साथ सब गुण एक ज्ञायकको ग्रहण करनेसे, उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसकी लीनता आंशिक लीनता है। उसकी दिशा बदल जाती है। सर्व गुणोंकी दिशा स्वरूपकी ओर मुड जाती है। जो पर सन्मुख थी वह दिशा ज्ञायक ओर हो जाती है। सर्व गुणांश सम्यग्दर्शन। सब गुण उसके साथ प्रगट होते हैं। मुख्य लक्षण ज्ञायकको ग्रहण करनेका ज्ञानलक्षण है। ज्ञानलक्षण बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। वह उसका मूल असाधारण लक्षण है। ज्ञायकमें अनन्त गुण हैं, परन्तु वह ज्ञानलक्षणसे ही प्रसिद्ध होता है। उसीसे प्रसिद्ध होता है।
ज्ञायक ग्रहण होनेके बाद उसकी स्वानुभूति भी उसीसे होती है। उसके बिना,.. मूल बीजको ग्रहण करके फिर उसमेंसे वृक्ष होता है। परन्तु मूलको यदि ग्रहण न करे तो वृक्षमें फल, फूल आदि बादमें (पनपता है)। वह बीजको ग्रहण करे, बीचमें पानी दे तो वह वृक्ष होता है। ऐसे मात्र वैराग्यमें रुक जाय तो ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। उसका हेतु ज्ञायकको ग्रहण करनेका होना चाहिये। परन्तु ज्ञायक अकेला रुखा ग्रहण नहीं होता। उसे विभावसे विरक्ति हो, यह सब आकुलता है, यह मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव ज्ञायक है। ऐसे विरक्ति आये बिना ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। इस ओर छूटे तो यहाँ आये और इसे ग्रहण करे तो वह छूटे, ऐसा सम्बन्ध है। शुभाशुभ दोनों