Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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भावोंसे उसे विरक्ति होती है। देव-गुरु-शास्त्र साथमें होते हैं। उसे शुभभाव जबतक होते हैं तबतक होते हैं, परन्तु उसे हेयबुद्धिसे आते हैं। देव-गुरुका साथ उसे छूटता नहीं है। परन्तु वह शुभभाव आकुलतारूप है। इसलिये उसे सर्व प्रकारसे मैं तो निर्विकल्प शुद्धात्मा हूँ। इसी तरह उसे ग्रहण होता है। हेयबुद्धिसे सब आता है।

देव-गुरु-शास्त्र उसे निमित्तमें होते हैं, उपादान अपना होता है। देव-गुरु-शास्त्र, मुनि हों तो भी उन्हें विकल्प आता है, शास्त्र रचते हैं, वह साथमें होते हैं। परन्तु विरक्ति तो पहले आंशिक और बादमें अधिक विरक्ति (होती है)। विरक्तिका साथ तो होता ही है, विरक्ति तो होती ही है।

मुमुक्षुः- तबतक अध्यात्ममें प्रवेश ही नहीं होता।

समाधानः- अध्यात्ममें प्रवेश नहीं होता। उसकी संसार ओरकी रुचि छूटे तो ज्ञायक ग्रहण होता है। रुचि तो छूटनी चाहिये न। रुचि, बाहरकी एकत्वबुद्धि, बाहरकी पूरी-पूरी रुचि हो और ज्ञायक ग्रहण करनेकी बात करे तो ऐसे ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। रुचि अंतरमेंसे छूट जानी चाहिये। यह कुछ मुझे नहीं चाहिये। यह सब दुःखमय है, यह सब आकुलतामय है। पूरा संसार दुःखमय है। सुख एवं शान्ति मेरे आत्मामें है। यह विभाव, विकल्पकी जाल दुःखमय है। विकल्पकी जालमें उसे कहीं शान्ति नहीं लगती। ऐसी विरक्ति अंतरमेंसे आनी चाहिये, तो ज्ञायक ग्रहण होता है। रुचि तो छूट जानी चाहिये। और स्वभाव ओर रुचि जागृत होनी चाहिये।

रुचि छूटे और अपना अस्तित्व ग्रहण करनेका ध्येय न हो तो ग्रहण नहीं होता है। वैराग्य करे, परन्तु रुचि अस्तित्व ग्रहण करनेका ध्येय होना चाहिये, ध्येय साथमें होना चाहिये। उसमेंसे ज्ञायक ग्रहण करे, उसमेंसे ही उसे भेदज्ञानकी धारा, सबकुछ उसीमेंसे होता है। उतना कल्याणरूप, परमार्थभूत है जितना यह ज्ञान है। ज्ञान अर्थात ज्ञायक है। उतना परमार्थरूप सत्यार्थ कल्याणरूप है, यह ज्ञान है। यह ज्ञान उसे शुष्क नहीं लगता, ज्ञान भरपूर भरा है। ज्ञान ज्ञायक पूरा महिमासे भरा है। ज्ञान अर्थात मात्र जानपना नहीं। ज्ञायक स्वतः ज्ञानस्वरूप है। ज्ञायक पूरा अनन्त महिमासे भरा ज्ञायक अनन्त गुणसे भरा है। ज्ञान यानी मात्र जानना ऐसा अर्थ नहीं है। ज्ञायक ग्रहण करनेमें उसे जितना परमार्थरूप, सत्यरूप, कल्याणभूत हो तो यह ज्ञायक है-ज्ञान है वही है।

अब उसे प्रगट कैसे करना? कि ज्ञायकको ज्ञानलक्षणसे (ग्रहण करना)। ज्ञानलक्षणसे ग्रहण करने कैसे जाय? कि विरक्ति आये बिना ग्रहण नहीं होता। दोनोंका सम्बन्ध है। ग्रहण करनेका मुख्य लक्षण ज्ञानलक्षण है।

मुमुक्षुः- चारित्रसे पहले शुरूआत करनी ऐसा कुछ नहीं है।

समाधानः- नहीं। उसे ज्ञानलक्षणसे ही ग्रहण करे। ऐसा कहा न? कहा न, ज्ञानलक्षणसे