३१८ उसकी शुरूआत उस ओरसे होती है। परन्तु वैराग्य उसे साथमें आये बिना नहीं रहता। बाहर रचपचा हो, रससे भरा हो और (कहे कि) मुझे ज्ञायक प्रगट हुआ है, वह सब बोलनेकी बात है। वह शुष्कता है।
मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवको कोटि-कोटि वन्दन! प्रशममूर्ति पूज्य भगवती माताका धर्म- प्रभावना उदय जयवंत वर्तो! आपश्रीको हमारे कोटि-कोटि वन्दन। मंगलमय मंगल करण, वीतराग विज्ञान, नमों तेथी थया अर्हंतादि महान। पूज्य माताजी! इस जन्मोत्सवके मंगल अवसर पर, यहाँ उपस्थित मुमुक्षुवृन्दकी ओरसे एक आध्यात्मिक जिज्ञासा है। उस विषयमें आपके श्रीमुखसे मांगलिकरूपसे दो शब्द सुननेके लिये हम उत्सुक हैं।
प्रश्न है कि रागादि भाव होनेपर भी उसी वक्त आत्मा शुद्ध कैसे हो सकता है? और राग और आत्माकी भिन्नता कैसे समझमें आये? तथापि अनादिकालसे राग-द्वेषके साथ एकतारूप परिणमन करता हुआ आत्मा भिन्नपने किस विधिसे परिणमे? यह आप समझानेकी कृपा कीजिये।
समाधानः- गुरुदेवने रागादिसे भिन्न आत्मा (बताया है)। गुरुदेवने सब समझाया है। गुरुदेवका परम उपकार है। मैं तो गुरुदेवका दास हूँ। गुरुदेवने तो सूक्ष्म-सूक्ष्म (समझाया है)। शास्त्रोंके रहस्य गुरुदेवने खोले हैं। रागादि होनेपर भी शुद्धता कैसे है? यह गुरुदेवने बहुत स्पष्ट करके समझाया है। जिस वक्त रागादि है, उसी समय आत्मामें शुद्धता है। आत्मा द्रव्यसे तो शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें अशुद्ध है। द्रव्य अशुद्ध नहीं हो गया है। द्रव्य तो स्वभावसे शुद्ध ही है। परन्तु रागकी एकत्वबुद्धिके कारण पर ओरकी रुचिके कारण वह ख्यालमें नहीं आता है।
उसका भेदज्ञान करे तो हो सके ऐसा है। उस ओरकी जिज्ञासा, भावना, आत्माकी रुचि लगाये, पर ओरकी महिमा छूट जाय और ज्ञायककी महिमा लगे तो ज्ञायक समझमें आये ऐसा है। महिमा लगे, उस प्रकारके विचार करे, उस प्रकारका तत्त्वका चिंवतन करे तो समझमें आये ऐसा है।
जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र सबने मार्ग बताया है। कैसा मार्ग बताया है, वह स्वयं विचार करके तत्त्वसे निर्णय करके विचार करे तो ज्ञायकस्वभाव उसी वक्त मौजूद है। जिस समय रागादि है, उसी समय शुद्धता भरी है। वह शुद्धात्मा पूर्ण स्वरूपसे भरा है। उसमें द्रव्य अपेक्षासे अशुद्धता नहीं हुयी है, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है। चैतन्यदेव, ज्ञायकदेव स्वयं देवस्वरूप विराजमान है।
जिनेन्द्र देवने ज्ञायकदेवका स्वरूप बताया। गुरुदेवने उस दिव्यमूर्ति ज्ञायकदेवका स्वरूप बताया है। रागादिमें सर्व प्रकारसे रागरूप नहीं हुआ है। उसी समय वह द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध है। उसके स्वभावका नाश नहीं हुआ है। स्वभाव तो अनादिका शुद्ध ही है।