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जैसे पानी अग्निके निमित्तसे गर्म होता है तो भी पानीकी शीतलताका नाश नहीं होता है। वैसे आत्मा ज्ञायक स्वभाव अनादिअनन्त है। उसे ज्ञायकताका नाश नहीं होता है। वह अनन्त गुणोंसे भरपूर अपूर्व महिमावंत आत्मा है। उसकी महिमा करे, उसका विचार करे। तत्त्वसे उसका विचार करके निर्णय करे, उसमें लीनता करे, उसका भेदज्ञान करे तो वह समझमें आये ऐसा है। एकत्वबुद्धि होनेपर भी, विभाव होनेपर भी उसका नाश नहीं हुआ है। वह तो वैसाका वैसा अनादिअनन्त है। उसका भेदज्ञान करके देखे।
जैसे स्फटिक स्वभावसे शुद्ध और निर्मल है, परन्तु पर निमित्तसे लाल, काला जो प्रतिबिम्ब उठते हैं, उस प्रतिबिम्बरूप परिणमन स्फटिकका (होता है), परन्तु स्फटिक मूल स्वभावसे स्फटिकको छोडकर, उसकी निर्मलता छोडकर रंगरूप नहीं होता है।
वैसे आत्मा अपना द्रव्यत्व जो स्वभाव ज्ञानस्वरूप है, शुद्ध है, उसे छोडकर वह विभावरूप नहीं हुआ है। उसका भेदज्ञान हो सके ऐसा है। एकत्वबुद्धि होनेपर भी वह भिन्न देखे कि जितना ज्ञान है वही मैं हूँ। ज्ञानके अतिरिक्त राग-द्वेषादि है, वह मेरा स्वरूप ही नहीं है। शुभाशुभ विकल्पसे भी भिन्न, गुणभेद, पर्यायभेद पडे उसे जाने। विभावसे स्वभावभेद है। गुण एवं पर्यायसे उसे लक्षणभेद और अंश-अंशीका भेद है। बाकी कथंचित गुणके साथ... गुण और द्रव्य अभेद है, और पर्याय भी उसके साथ अभेद है। परन्तु कथंचित भेद है। लक्षणसे और अंश-अंशीका भेद है।
द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत है और अभेद है। और गुण कोई अपेक्षासे उसमें लक्षणभेद और पर्यायका अंश-अंशी (भेद है)। पर्याय पलटती है, द्रव्य एकरूप अनादिअनन्त रहता है। विभाव और स्वभावका विभावके साथ भेद है। उन सबका ज्ञान करके, प्रतीत करके अन्दर जाय तो वह पहचाना जाय ऐसा है। जे शुद्ध जाणे आत्मने, ते शुद्ध आत्म ज मेळवे। जो आत्माको शुद्ध जाने वह आत्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट करता है। शुद्धात्माका अनुभव करता है। रागमें शुद्धात्माका अनुभव नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध आत्मा हाजिर है, परन्तु उसकी पर्याय यदि पलटे, ज्ञायककी परिणति पलटे, ज्ञायक- ज्ञायककी परिणति ज्ञायकरूप हो जाय तो उसमें उसे ज्ञाताकी धारा प्रगट हो और स्वानुभूति प्रगट हो और उसीमें उसे मुक्तिका मार्ग, मुनिदशा आदि सब उसी मार्ग पर आती है। यदि वह .. करे तो अंतर्मुहूर्तमें होता है और न करे तो उसे काल लगता है। परन्तु स्वयंके पुरुषार्थकी कचास है इसलिये होता नहीं है।
गुरुदेवने मार्ग बताया है, उस मार्गकी बारंबार स्वयं प्रतीति करके ज्ञायकका रटन करे तो वह पहचाना जाय ऐसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा लक्ष्यमें शुभभावमें रखे। भले शुभाशुभ भावसे आत्माका स्वभाव भिन्न है, परन्तु बीचमें अशुभसे बचनेके लिये शुभभाव आते हैं। वह आते हैं, परन्तु अपना स्वभाव नहीं है। वह हेयबुद्धिसे आते