१२०
करके भेदज्ञान करे, स्वानुभूति प्रगट करे। उसका ग्रहण करनेका प्रयोजन वह है। तू यथार्थ ग्रहण कर। तू झूठेमें, विभावमें बाहरमें सुख मान लिया है, उसीमें मानो मेरा सर्वस्वा मान लिया, वह सब जूठा है। जो यथार्थ है उसे ग्रहण कर तो उसमेंसे सुख आयेगा, बाहरसे नहीं आयेगा। इसलिये उसे ग्रहण कर। तू अनन्त गुणसे भरपूर ज्ञायकता तेरेमें है। उसमें अनन्त गुण भरे हैं। आनन्द उसमें, सुख उसमें, सब उसीमें है। इसलिये उसे ग्रहण करनेका प्रयोजन है।
मुमुक्षुः- उससे तुझे सुखकी प्राप्ति होगी।
समाधानः- सुखकी प्राप्ति ज्ञायकमेंसे होगी, बाहरसे नहीं होगी। देव-गुरु-शास्त्रने कैसा मार्ग कहा है उसे लक्ष्यमें रखकर... शुभभाव भी आकुलता है, उससे भी भिन्न ज्ञायक है, उसे ग्रहण कर। फिर बीचमें शुभभाव आये उसे ख्यालमें रखे, परन्तु वस्तु तो यह ग्रहण करनेकी है। ग्रहण तो शुद्धात्मा करनेका है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! एक प्रश्न ऐसा है कि, निर्विकल्पताके कालमें ज्ञानीको शुद्धनयका आलम्बन रहता है कि नहीं? और यदि रहता हो तो नयका प्रयोजन सिद्ध होनेके बाद नय निर्विकल्प अवस्थामें अस्त हो जाती हैं, उस कथनके साथ कैसे मेल है?
समाधानः- नय यानी वहाँ विकल्पात्मक नय नहीं है। निर्विकल्प अवस्थामें विकल्पवाली नय खडी नहीं रहती। इसलिये वह नय विलीन हो जाती है, नयकी लक्ष्मी कहाँ चली जाती है, आता है न? निक्षेपका समूह,.. प्रमाण अस्त हो जाता है। वह सब विकल्पात्मक नय और विकल्पात्मक प्रमाण वह सब अनुभवमें नहीं है। विकल्पात्मक नहीं है। परन्तु नय अर्थात अनुभूतिके अर्थमें निज द्रव्य पर दृष्टि तो जैसी है वैसी है। द्रव्य पर दृष्टि गयी और उस ओरकी परिणति हुयी वह वैसी ही है। इसलिये उस अपेक्षासे उसकी द्रव्य पर दृष्टि तो है। इसलिये उसे शुद्धनय कहो या आत्माकी अनुभूति कहो, सब एक है। समयसारमें आता है।
शुद्धनय अर्थात शुद्ध आत्माको ग्रहण किया और उस रूप शुद्ध परिणति हुयी, ऐसे अर्थमें है। द्रव्य पर दृष्टि तो वैसी ही है। परन्तु वह निर्विकल्प है। वहाँ विकल्पात्मक नय नहीं है कि मैं शुद्ध हूँ, यह पर्याय, ऐसे कोई विकल्प नहीं है। विकल्प नहीं है परन्तु शुद्धात्मा जैसा है उस रूप उसकी परिणति है। और शुद्धात्मा पर उसकी दृष्टि थँभ गयी है। शुद्धात्माकी ओर ही परिणतिने जो लक्ष्यमें लिया, दृष्टिने लक्ष्यमें जिस आत्माको लिया वहीं उसकी परिणति स्थिर है। वहीं उसकी दृष्टि स्थिर है। और पर्याय जो परिणति प्रगट हुयी, निर्विकल्प अवस्थाकी परिणति है। इसलिये उसे उस अपेक्षासे शुद्धनय है। परन्तु विकल्पात्मक नय नहीं है, निर्विकल्प नय है।
मुमुक्षुः- उस वक्त शुद्धनयका जोर है?